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• प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा.
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मनन, ध्यान हेतु है जो असंग-अप्रमत्त-वीतराग और मुक्त होने के लिए पात्र है। ये साधक जीवन-मरण में, सुख-दुःख में, शत्रु-मित्र में, निन्दा-प्रशंसा में, हर्ष-शोक में, लाभ-अलाभ में अथवा कैसी ही परिस्थितियों में चाहे अनुकूल हो अथवा प्रतिकूल हो, समभावी, मध्यस्थभावी और उदासीन वृत्ति से रहते हुए कर्मनिर्जरा के हेतु आत्माभिमुख रहते हैं। प्रात्मोपयोग ही इनका मुख्य लक्षण है। प्रात्मशुद्धि में निरंतर वर्द्धमान रहते हैं। इस क्रम से ही धर्म ध्यान से शुक्ल ध्यान में पहुँचकर वीतरागता-सर्वज्ञता को वरण करते हैं।
- इन साधकों में आचार्य की दुहरी जिम्मेदारी है-आत्म-ज्ञान-यात्म-ध्यान में रहते हुए साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका व अन्य जिज्ञासु मुमुक्षु भव्य जीवों को जिनाज्ञानुसार बोध देकर मोक्षमार्ग में स्थित करते हैं, पंचाचार का स्वयं पालन करते हुए उन्हें भी पालन करवाते हैं। जिन्हें दोष लगता है, उन्हें प्रायश्चित विधि से शुद्ध कर रत्नत्रय धर्म में स्थित करने हैं। ऐसे महान् ज्ञानवन्त, वैराग्यवन्त, क्षमावन्त, तपोवन्त, आचारवन्त आधारवन्त, धर्मप्रभावक, धर्मग्रन्थों के निर्माता, परम कुशल धर्मोपदेशक, सभी धर्म दर्शनों के ज्ञाता, रहस्य को जानने वाले, अकाट्य सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने वाले, परम दयालु, परम कल्याणी आचार्य पद को सुशोभित करते हैं । सामायिक का स्वरूप :
साधक की साधना का मूल सामायिक है। सामायिक चारित्ररूप है, चारित्र आचरण रूप है और आचरण धर्म रूप है तथा धर्म आत्म-स्वभाव स्वरूप है । यही आत्म साम्य है, स्थिरता है, आत्म रमणता है और वीतरागता है जहाँ कषाय-मुक्ति है । अतः सामायिक लक्ष्य रूप भी है तो साधन रूप भी है । सामायिक का वास्तविक प्रारंभ मुनि अवस्था से क्षीण मोह गुण स्थान तक अर्थात् यथाख्यात चारित्र जो परिपूर्ण वीतराग स्वरूप है, होता है।
'आया सामाइए, आया सामाइयस्स अट्ठ' (श्री भगवती सूत्र)
अर्थात् देह में रहते हुए भी देहातीत शुद्ध चैतन्य स्वरूप में रमणता रूप समवस्थित होना ही सामायिक है।
मोह-क्षोभ-चपलता-संकल्प-विकल्प-आशा-इच्छा, रागद्वेषादि विकारों से सर्वथा रहित स्वावलम्बन-स्वाधीन-स्वतन्त्र निजी स्वभाव रूप ज्ञाता द्रष्टामय वीतरागता से सतत भावित होना सामायिक है। इस सामायिक चारित्र के मूल लक्षण उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम शौच (निर्लोभता), उत्तम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन्य, उत्तम
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