________________
• १८८
• व्यक्तित्व एवं कृतित्व
धर्म का पालन भी सरलता से हो सकेगा। इस प्रकार जितना ही कुल, गण एवं संघ धर्म सुदृढ़ होगा उतना ही श्रुत और चारित्रधर्म अच्छा निभेगा । जैसे सिक्खों में दाढ़ी रखने का संघ धर्म है-इसी प्रकार समाज में प्रभु स्मरण, गुरुदर्शन एवं स्वाध्याय दैनिक नियम बना लिया जाय तो संस्कारों में स्थिरता पा सकती है। समाज को व्यवस्थित रूप से चलाने के लिए संघ-धर्म आवश्यक है। जैसे वर्षा ऋतु में शादी न करना राजस्थान में समाज धर्म है-इसी प्रकार संघ धर्म के रूप में स्वाध्याय और तप-नियम आदि जुड़ जायँ तो व्यक्ति धर्म का पालन आसान हो सकता है।
३. शुद्धता या निर्दोषता और कठोर प्रात्मानुशासन-साधना में निर्दोषता या शुद्धता के आचार्यश्री प्रबल पक्षधर थे। उनके मत में साधना का ध्येय विकृतियों का निवारण कर जीवन को निर्दोष बनाना है। जैन धर्म के प्रचारप्रसार पर आयोजित अखिल भारतीय जैन विद्वत् परिक्ष के कोसाना (राजस्थान) की वार्षिक संगोष्ठी में उपस्थित विद्वानों के समक्ष उन्होंने प्रचार की अपेक्षा आचार प्रधान संस्कृति पर अत्यधिक जोर दिया था। अपने पंडित मरण से पूर्व उन्होंने अपने संतों को निर्देश दिया था कि वे स्थानक और आहार की गवेषणा एवं शुद्धता का पूर्ण लक्ष्य रखें ।।
___ साधना निरतिचार बने एतदर्थ वे आहार की सात्विकता एवं अल्पता तथा स्वाध्याय आदि पर विशेष बल देते थे। इसके साथ ही साधना में कोई स्खलना न हो, इसके लिए कठोर आत्मानुशासन अथवा प्रायश्चित्त पर विशेष जोर दिया करते । साधक स्वयं ही कठोर प्रायश्चित्त ग्रहण करें, ताकि पुनः स्खलन न हो।
४. प्रयोगशीलता-आचार्यश्री का यह वैज्ञानिक दृष्टिकोण था जिससे वे विविध साधना प्रवृत्तियों के प्रयोग (Experiment) करने की प्रेरणा किया करते थे । इसी प्रेरणा के फलस्वरूप स्वयं लेखक ने साधक शिविरों में समभाव साधना, इन्द्रिय-विजय, मनोविजय-साधना पर सामूहिक प्रयोग किए, जो सफल रहे और इनसे साधकों के जीवन-व्यवहार में पर्याप्त परिवर्तन घटित हुआ।
आचार्यश्री के इस दृष्टिकोण के पीछे आशय यही रहा होगा कि कोई चीज, भले ही वह साधना ही हो, थोपी न जाय अथवा विभिन्न साधना पद्धतियों में प्रयोग द्वारा उपयुक्त का चयन कर लिया जाय । जोधपुर शहर में इसी प्रकार 'श्वास पर ध्यान करने के प्रयोग की प्रेरणा दी गई और परिणाम में जो उचित
१. जिनवाणी, फरवरी १६६१, पृ. २ २. जिनवाणी (श्रद्धांजलि विशेषांक) मई, जून, जुलाई, १६६१, पृ. ३५५
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org