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• व्यक्तित्व एवं कृतित्व
मति उन्मार्गगामी नहीं होती-'गीता' में कृष्ण भी आत्म-साधना की महता बताते हैं
"उद्धरेदात्मनात्मानं, नात्मानमवसादयेत् ।
आत्मैवात्मनो बन्धु रात्मैवरिपुरात्मनः ।।" आत्म ही ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञय है। आत्म-साधना में ज्ञान और भक्ति दोनों सहायक हैं । 'ज्ञानमेव पराशक्तिः'। अज्झमणमेवझाणं-ज्ञान/स्वाध्याय तप है। स्वाध्यान्मा प्रमदः । ज्ञान/ध्यानाग्नि सर्वकर्माणि भस्मसात् करुते क्षणः । जिस प्रकार धागे सहित सुई कहीं खोती नहीं, वैसे ही ज्ञान युक्त आत्मा। संसार में भटकता नहीं है। ज्ञानावरणादि कर्मों का क्षय स्वाध्याय से ही होता है।
__ आचार्य श्री हस्तीमलजी महाराज ने अपने महनीय व्यक्तित्व एवं कृतित्व के द्वारा प्रात्म-साधना के मार्ग को साधु और श्रावक दोनों के लिये प्रशस्त किया। अपने सुदीर्घ तपस्या एवं त्याग से उन्होंने आत्म-साधना के उच्च आयाम को पाकर अपने प्रवचनों एवं साहित्य-लेखन द्वारा जन-सामान्य को सम्बोधित कर सन्मार्ग पर लगाया। उनकी 'प्रार्थना-प्रवचन' पुस्तक में आत्म-साधना हेतु ज्ञान एवं भक्ति के माध्यम से पदे-पदे पाठकों को सुकर मार्ग मिलता है । वस्तुतः प्रार्थना पर दिये गये ये प्रवचन मोक्ष मार्ग में पाथेय स्वरूप हैं। इनमें प्राचार्य श्री ने जीवन में प्रार्थना की उपादेयता पर विभिन्न उदाहरणों/दृष्टान्तों से आत्म-साधना में सहायक तत्त्वों को साधकजिज्ञासु के लिये सहज रूप में प्रस्तुत किया है। प्रातः कालीन आदिनाथ स्तुति मानव-मात्र को सुख-शान्ति के साथ आत्म-ध्यान के पथ पर आरूढ़ करती है। आत्मा को परमात्मा से जोड़ने के मार्ग में आचार्य श्री के ये प्रवचन आत्मसाधक के लिये निश्चित ही अत्यन्त उपादेय हैं । आत्म-साधना में प्रार्थना, ध्यान और भक्ति आत्मा को निर्मलता प्रदान करती है।
-१६१०, खेजड़े का रास्ता, जयपुर-३०२ ००१
- संसार-मार्ग में मनुष्य को अपने से श्रेष्ठ अथवा अपने जैसा साथी न
मिले तो वह दृढ़तापूर्वक अकेला ही चले, परन्तु मूर्ख की संगति कभी न करे।
-धम्मपद
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