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जैन धर्म-दर्शन में आत्म-साधना के लिये कोई निश्चित समय की सीमा निर्धारित नहीं है । यद्यपि भारतीय संस्कृति में मनुष्य की १०० वर्ष की आयु मानकर २५ - २५ वर्ष के अन्तराल से चार श्राश्रमों का निर्धारण कर चार पुरुषार्थों की प्राप्ति की बात कही गयी है, कविवर कालिदास कहते हैं ।
व्यक्तित्व एवं कृतित्व
" शैशवेऽभ्यस्त विद्यानां यौवने विषयेषिणाम् । वार्द्धके मुनिवृत्तीनां योगेनान्ते तनुत्यजाम् ।।” परन्तु जैन कवि कहता है
"बालपने में ज्ञान न लह्यो, तरुण समय तरुणी रत रह्यो । अर्द्ध मृतक सम बूढ़ापनो, कैसे रूप लखे अपनो ||
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जैन संस्कृति में आत्म-साधना के लिये कोई आयु का बन्धन नहीं है । बाल्यावस्था में भी अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग हो जाता है। जैन धर्म के तीर्थंकर आचार्य साधु-साध्वियों का जीवन इस तथ्य का जीवन्त प्रमाण है । प्रातः स्मरणीय पूज्य आचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा. ने तो १० वर्ष की अत्यल्प आयु में मुनि दीक्षा धारण कर प्रात्म-साधना के कठोर मार्ग का अवलम्बन लिया और २० वर्ष की प्रारम्भिकी युवावस्था में प्राचार्य पद ग्रहण कर आत्म कल्याण के साथ समाज को भी सन्मार्ग की ओर प्रेरित किया ।
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"स जातो येन जातेन, याति वंशः समुन्नतिम् ।
परिवर्तिनि संसारे मृत: कोवा न जायते || पंचतंत्र ।। "
आचार्य श्री वस्तुतः कुल दीपक थे । जैन कुल नहीं, मानव कुल के, इसीलिये वे मानवोत्तम थे । नर-जन्म की सार्थकता को उन्होंने अनुभूत किया, अपनी आत्म-साधना से प्राप्त फल का आस्वादन उन्होंने हमें भी कराया - जो उनके विशाल कृतित्व के रूप में विद्यमान है । ऐसे आत्म-साधकों के दर्शन व सान्निध्य बड़े भाग्य से मिलते हैं
"साधूनां दर्शनं पुण्यं, तीर्थभूताः हि साधवः । कालेन फलते तीर्थः, साधुः सद्यः समागमः ॥ चन्दनं शीतलं लोके, चन्दनादपि चन्द्रमाः । चन्द्र चन्दनयोर्मध्ये, शीतला साधु संगतिः ।।'
जैन धर्म की सामाजिक व्यवस्था की सबसे बड़ी देन 'चतुः संघ' की स्थापना है । जैनचार्यों ने साधु-साध्वी और श्रावक-श्राविका को चतुः संघ का
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