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________________ • प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा. कि प्रार्थना, वंदना, विनती के प्रयोजन के लिए प्रेक्टिकल बुक की भांति हो । जिस पुस्तक में क्या करें, कैसे करें, क्यों नहीं करें और किस तरह करें आदि आधारभूत बातों पर लेखक के स्वयं के मौलिक अनुभव हों, वर्तमान उपभोक्ता संस्कृति में प्रार्थना-पत्र, लेखन कला या एप्लिकेशन राइटिंग पर जेबी किताबों से लेकर सजिल्द लम्बी-ठिगनी, पतली - मोटी खरीदार की गुंजाइश के अनुरूप पुस्तकें खूब मिल जायेंगी, खैर ! हमें प्रार्थनाओं का संकलन नहीं चाहिए, प्रार्थन के महत्त्व पर मन लुभावन या पाण्डित्य लिए उपदेश नहीं बल्कि प्रार्थना कर सकें, प्रयोगशाला स्वयं बन जाये कि प्रयोग कर सकें, उसकी सहज मगर सम्पूर्ण विवरणिका की टोह है । एकदम पारदर्शी कथन जैसा कि ईसा मसीह ने कहा है- 'हम जो जानते हैं वही करते हैं और जिसे हमने देखा है उसी की गवाही देते हैं, या कि 'दादू देखा दीदा ' सब कोई कहत सुनीदा' । १६१ ईस्वी सन् १९६० के मार्च महीने में होली से जरा पहले मगर बसन्त की ताजगी से प्रोज प्राप्त किए प्रातः कालीन प्रवचन के उन श्रोताओं का जीवन धन्य हो उठा होगा जिन्होंने प्राचार्य श्री हस्तीमलजी महाराज साहब के श्रीमुख से प्रार्थना विषय पर कहे गये शब्दों का रसपान किया होगा । आचार्य श्री के प्रभा मण्डल में बैठना अतीन्द्रिय कम्पनों से रोम-रोम जागृत हो जाना, गहन शांतिमयी व्यक्तित्व के ऐसे सद्गुरु से शिक्षित होना, जन्म-जन्मों के पुण्यों के प्रताप से ही संभव है । फिर भी उन प्रवचनों के साफ सुथरे संग्रह "प्रार्थना प्रवचन" जिसे सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल, जयपुर ने प्रकाशित किया है, का हाथ लग जाना, अच्छे प्रारब्ध का ही प्रतिफल है । प्रार्थना को परिभाषित करते हुए महाराज साहब फरमाते हैं, "चित्तवृत्ति तूली को परमात्मा के साथ रगड़ने का विधिपूर्वक किया जाने वाला प्रयास ही प्रार्थना है" । हमारी इच्छाएँ, मन के भटके आदि सांसारिक चीजों के साथ रगड़ खिला-खिला कर हमें लगातार शक्तिहीन किए जा रहे हैं, जरा सोचें, क्या हमने इसलिए जन्म पाया था कि हमारा लक्ष्य दुनियादारी के कबाड़े को . इकट्ठा करना ही रह जाय । पंचभूतों की यह साधना सामग्री, हमें पढ़ने हेतु जो उपलब्ध हुई थी, से अवसाद की कमाई लेकर फिर से साधारण बहुरूपिये की तरह कोई नया लिबास प्रोढ़ने को बाध्य हो जायं । महाराज सा० सावधान करते - हैं - 'अगर तूली को आगपेटी से रगड़ने के बदले किसी पत्थर से रगड़ा जाय तो कोई फल नहीं होगा बल्कि उसकी शक्ति घट जायेगी । तूली और मानवीय चितवृत्ति में एक बड़ा अन्तर है कि माचिस का तेज तो जरा देर का होता है, परन्तु जब व्यक्ति के मन की अवस्था परमात्मा से रगड़ खाती है तो उससे जो तेज प्रकट होता है वह देश और काल की परिधि को तोड़ता हुआ असीम हो जाता है ।' “पर्दा दूर करो" अध्याय से रहस्य खुलकर सामने आता है । आत्मा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003843
Book TitleJinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1992
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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