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________________ • १५४ • व्यक्तित्व एवं कृतित्व 8. धर्म मार्ग की सीख पण्डितों को दें-प्राचार्य श्री की पूष्ट मान्यता थी कि यदि पण्डितों को सन्मार्ग और धर्म मार्ग की सीख दी जाय तो उनके अनुगामी स्वतः ही परिवर्तित हो जायेंगे । भगवान् महावीर का आदर्श प्रस्तुत कर आचार्य श्री ने कहा कि भगवान् महावीर ने इन्द्रभूति आदि पण्डित नेताओं को अहिंसा का उपदेश दिया, उनके अनुगामी जन-समूह ने तो अनुकरण मात्र किया और महावीर के अनुयायी बन गये। अन्त में निष्कर्ष यही है कि प्राचार्य श्री के उपदेश 'परोपदेशे-पाण्डित्यम्' के हेतु नहीं हैं वरन् आप श्री ने स्वयं समभाव में स्थित होकर मोह और क्षोभ से रहित आत्म-परिणाम में रमण कर समभाव रूप सामायिक और चारित्र धर्म का उपदेश दिया। वही उपदेश आज स्वाध्याय का साधन बन गया। -निदेशिका, क्षेत्रीय केन्द्र, कोटा खुला विश्वविद्यालय, उदयपुर 000 - अमृत-कण * सम्यक् चारित्र के दो रूप हैं-संयम और तप । संयम नवीन कर्मों के आस्रव-बंध को रोकता है और तप पूर्व संचित कर्मों का क्षय करता है। मुक्ति प्राप्त करने के लिए इन दोनों की अनिवार्य आवश्यता है। * हमें शरीर बदलने का दुःख नहीं होना चाहिए । दुःख इस बात पर होना चाहिए कि ज्ञान गुण घट गया, श्रद्धा घट गई । * हमारे प्रात्म-गुणों को हीरा, स्वर्ण, भूमि आदि नहीं ढकते । मोह और आसक्ति ही आत्म-गुणों को ढकते हैं । -प्राचार्य श्री हस्ती Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003843
Book TitleJinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1992
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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