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________________ • प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा. • १३७ उसकी वाणी का निर्मल और सर्वतोभद्र होना स्वाभाविक है । जिनवाणी का अवगाहन करने से हमारा पारस्परिक स्नेह बढ़ेगा और जीवन शांतिमय रहेगा। (जिनवाणी, पृ. १, अप्रेल १९८६, मई १९६०)। उपदेशक के लिए यह आवश्यक है कि वह किसी को असत्य मार्ग न बताये । यह मार्ग तब तक नहीं हो सकता जब तक वह वीतरागी न हो । साधक का भी कर्तव्य है कि वह सत्य के पीछे कड़वापन बरदाश्त करे । जड़ को छोड़कर त्याग और गुण की उपासना जब तक नहीं होगी, तब तक सच्चा उपासक नहीं कहा जा सकता (जिनवाणी, मई, १६६०) । कामनाओं का शमन ही सच्चा श्रावक धर्म है-'कामेण कमाही कमियं खु दुक्खं'-दसवेयालिय । अगन्धन सर्प के समान छोड़ी हुई वस्तु को ग्रहण मत करो-णिच्छंति वंत यं भुत्तुं कुले जाया अगन्धरणे' । सही श्रावक के लिए शास्त्रों की सही जानकारी होना चाहिये। श्रावक माता-पिता, भाई के समान हैं जो परस्पर विचार-विनिमय कर तथ्य को समझने का प्रयत्न करते हैं । यही सम्यकदर्शन है । (जिनवाणी, जून, १९८३) 'स्थानांग सूत्र' के आधार पर आचार्य श्री ने श्रावक के तीन भेद कियेजघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट । जघन्य श्रावक वह है जो स्थूल हिंसा का त्यागी हो, मदिरा-मांस-अंडे का सेवन न करे और नमस्कार मंत्र का धारक हो । मध्यम श्रावक वह है जो २१ गुणों का धारक, षट्कर्मों का साधक और १२ व्रतों का पालक हो । उत्कृष्ट श्रावक ही पडिमाधारी और वानप्रस्थाश्रमी कहा गया है। (जिनवाणी, जून, १९८३) प्रात्म-साधना-'आचारांग-सूत्र', के 'पुरिसा ! अत्तारणमेव अभिणिगिच्झ एवं दुक्खापमोक्खसि' के आधार पर प्राचार्य श्री ने आत्मा को ही अपना तारक माना है । सुख-दुःख का कारण हमारे भीतर ही है। बस, उसकी अनुभूति होनी चाहिए । मनुष्य की बुद्धि और भावना ही बंध और मोक्ष का कारण है। वह स्वयं ही तारण, मारण मंत्र का विधाता है। अात्मा के द्वारा ही प्रात्मोद्धार होता है। आगम आत्मा की एकता प्रतिपादन करता है--'एगे आया ।' सभी आत्मायें अपने मूल स्वरूप में एक-सी हैं, उनमें कोई अन्तर नहीं है। उनमें जो विविधता है वह बाह्य निमित्त से हैं, कर्मों की विचित्रता के कारण हैं । आत्मा की ज्ञान-सुख रूप शक्तियां कर्मों से दूर हो जाने पर प्रकट हो जाती हैं। प्राभ्यन्तर और वाह्य परिग्रह की सीमा का भी यदि निर्धारण कर लिया तो प्रशस्त मार्ग प्राप्त हो सकता है। "इच्छा हु आगास समा अणंतिया" (उत्तराध्ययन) अतः परिग्रह की सीमा निर्धारित हो और आवश्यकता से अधिक धन का संचय न हो। आत्मज्ञान अनन्तशक्ति का स्रोत है । उसे प्राप्त किया जा सकता है (जिनवाणी, अगस्त, १९७५) । आत्मज्ञान Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003843
Book TitleJinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1992
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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