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प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा.
अपने एक प्रवचन में आचार्य श्री कहते हैं कि "प्रभु की प्रार्थना आत्मशुद्धि की पद्धति का एक आवश्यक अंग है ।........ प्रार्थना का प्राण भक्ति है । जब साधक के अन्तःकरण में भक्ति का तीव्र उद्रेक होता है, तब अनायास ही जिला प्रार्थना की भाषा का उच्चारण करने लगती है ।"
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आचार्य प्रवर ने प्रार्थना का वर्गीकरण तीन विभागों में किया है(१) स्तुति - प्रधान ( २ ) भावना - प्रधान ( ३ ) याचना - प्रधान । इन तीनों प्रकारों की सुन्दर व्याख्या सरल भाषा में की है । वे उदाहरणों द्वारा अपनी बात को सुस्पष्ट कर समझाते जाते हैं । उनका कथन है कि जैन धर्म की मान्यता है कि प्रत्येक आत्मा स्वभाव से समान है । चाहे सिद्ध परमात्मा हो या संसार में परिभ्रमण करने वाला साधारण जीव, दोनों में समान गुण-धर्म विद्यमान हैं । अन्तर है तो केवल विकास के तारतम्य का । आचार्य श्री के अनुसार प्रार्थना के रहस्य एवं प्रार्थनाओं के तारतम्य को समझ कर स्तुति - प्रधान प्रार्थना से भावना- प्रार्थना में आना चाहिये और जीवन के छिपे हुए तत्त्व को, आत्मा की सोई हुई शक्तियों को जगाना चाहिए। इससे अनिर्वचनीय प्रानन्द की प्राप्ति होती है ।
आचार्य श्री हस्तीमलजी ने अपने इन प्रवचनों में यह भी बतलाया है कि प्रार्थना कैसी होनी चाहिए, प्रार्थना का लक्ष्य क्या है, प्रार्थना अन्तःकरण से हो, प्रार्थ्य और प्रार्थी कैसे होने चाहिए आदि बातों का बोधगम्य, सुन्दर विवेचन एवं निरूपण किया है। समाज में व्याप्त रूढ़ियों तथा अंध-विश्वासों का खण्डन करते हुए आचार्य प्रवर ने प्रार्थना करने हेतु व्यावहारिक एवं वैज्ञानिक दृष्टि का प्रतिपादन किया है ।
'गजेन्द्र व्याख्यान माला' तृतीय भाग में प्राचार्य श्री महाराज के सन् १९७६ में बालोतरा चातुर्मास के समय पर्युषण पर्व के सात दिन के व्याख्यानों को संकलित किया गया है । जैन समाज के सर्वांगीण विकास एवं अभ्युदय हेतु आचार्य श्री हस्तीमलजी ने इन सात दिनों में जो प्रवचन किये, वे अत्यन्त मार्मिक, प्रेरणात्मक तथा पथ-प्रदर्शक हैं । ये व्याख्यान प्राय: सरल भाषा में दिए गए हैं, किन्तु इनमें निहित भाव एवं विचार गुरु गम्भीर हैं । "इन प्रवचनों में साधनापूत आध्यात्मिक चिंतन-मनन किया गया है । प्राचार्य की आत्मानुभूति से युक्त पावन वाणी का पीयूष इन उद्गारों में निहित है ।" इन प्रवचनों में कहा गया एक -एक शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है जो श्रोता या पाठक की हृदय-तंत्री को झंकृत कर देता है । पाठक के अन्तः चक्षुओं को उन्मीलित कर व्यक्ति को साधना के सपथ पर अग्रसर होने को उत्प्रेरित करता है ।
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