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________________ • १३० • व्यक्तित्व एवं कृतित्व स्वर्ण, हीरे और जवाहरात के परिग्रह भार हैं । इधर दरिया में डुबोते हैं और उधर भवसागर की दरिया में भी डुबोते हैं । तो माई का लाल ! यदि परिग्रह कुटुम्ब की आवश्यकता के लिए रखना जरूरी है तो ऐसा करो कि उस पर तुम सवारी करो लेकिन तुम्हारे पर वह सवार न हो । सोना, चाँदी, हीरे-जवाहरात के ऊपर, तुम सवार रहो लेकिन तुम्हारे ऊपर धन सवार नहीं हो । यदि धन तुम पर सवार हो गया तो वह तुमको नीचे डुबो देगा । यह है अरिहंत भगवान की शिक्षा।” (गजेन्द्र व्याख्यान माला, भाग ६, पृष्ठ ४३) ___ 'प्रार्थना प्रवचन' नामक ग्रन्थ का प्रथम संस्करण १६६२ में प्रकट हुआ था, उसी का दूसरा संस्करण १६६० में प्रकाशित किया गया। इन प्रवचनों में आचार्य श्री के प्रार्थना पर दिये गये प्रवचनों का अमूल्य संकलन है । प्रार्थना को लेकर अभी तक पारदर्शी दृष्टि से बहुत कम विबेचन हो पाया है। 'प्रार्थना प्रवचन' उस कमी की पूर्ति की दिशा में एक स्तुत्य कदम है। इन प्रवचनों में आचार्य श्री ने प्रार्थी और प्रार्थना का विवेचन करते हुए जनता के सम्मुख प्रार्थना की महत्ता का सुन्दर विवेचन प्रस्तुत किया है। विवेच्य कृति में प्राचार्य श्री प्रार्थना के स्वरूप को व्यक्त करते हुए कहते हैं "प्रार्थना का प्राण भक्ति है। जब साधक के अन्तःकरण में भक्ति का तीव्र उद्रेक होता है तब अनायास ही जिह्वा प्रार्थना की भाषा का उच्चारण करने लगती है। इस प्रकार अन्तःकरण से उद्भूत प्रार्थना ही सच्ची प्रार्थना है।" (प्रार्थना-प्रवचन, पृष्ठ २) ___काव्य शास्त्रीय निकष पर यदि बिचार करें तो प्रवचन निबन्ध के अन्तर्गत रखे जा सकते हैं किन्तु यह निबन्ध से भिन्न सर्वथा मौलिक काव्य रूप है। 'प्रवचन' व्यक्ति प्रधान होते हैं। उनमें प्रवाचक के गहन अध्ययन और अनुभूति का अद्भुत संगम होता है । पूज्य आचार्य श्री हस्तीमलजी महाराज के प्रवचनों में उनके धर्मग्रन्थों का व्यापक अध्ययन और गहन अनुभूति का अद्भुत समन्वय विद्यमान है। मनुष्य को मनुष्य बनने के लिए छोटे-छोटे धार्मिक संकल्पों को लेकर प्राचार्य श्री ने इस प्रकार व्यंजित किया है कि उनमें श्रोता अथवा पाठक का अन्तरंग प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। इनके प्रवचनों में प्रभावना का अतिरेक सर्वत्र विद्यमान है। दुरुह से दुरुह विषय को प्राचार्य श्री जीवन की प्रयोगशाला में चरितार्थ कर दृष्टान्तों के रूप में इस प्रकार शब्दायित करते हैं कि वर्ण्य विषय का काठिन्य काफूर हो जाता है और श्रोता अथवा पाठक के लिए विषय-कलेवर का बोध सुगम Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003843
Book TitleJinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1992
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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