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प्राचार्य श्री हस्ती : वचन और प्रवचन
1 डॉ० महेन्द्र सागर प्रचंडिया
चन्दन और चाँदनी में शीतलता तो है पर उष्णता नहीं, आदित्य और अनल में उष्णता तो है पर शीतलता नहीं । सागर में गहराई तो है पर ऊँचाई नहीं, अद्रि में ऊँचाई तो है पर गहराई नहीं। प्राचार्य प्रवर श्री हस्तीमलजी महाराज में शीतलता, उष्णता, गहराई और ऊँचाई समान रूप से विद्यमान रही है। उनमें तपश्चरण की उष्णता, आत्मानुभूति की शीतलता तथा चारित्र की ऊँचाई तो ज्ञान-गहराई एक साथ मुखर हो उठी थी।
वे जब चले तो सन्मार्ग के चरण चल पड़े परन्तु वे लीक पर कभी नहीं चले । उन्होंने स्व-पर कल्याण के लिए नये-नये पंथों को प्रकाशित किया। वे जितना जिये स्वावलम्बी बनकर ठाठ से जिये और जब मरण को प्राप्त हुए तो उसे मृत्यु-महोत्सव मनाते हुए । अद्भुत किन्तु अनुकरणीय जीवनादर्श स्थापन करने में आचार्य श्री सचमुच साकार अनन्वय अलंकार थे।
ऐसे जनवंद्य पूजनीय आचार्य श्री हस्तीमलजी महाराज ने स्व-पर कल्याणार्थ जब-जब 'वचन' उचारे वे तब-तब 'प्रवचन' बनकर जन-जन के कण्ठहार बन गये । यहाँ उनके कतिपय 'वचन' और 'प्रवचन' के सन्दर्भ में संक्षिप्त चर्चा करना हमें मूलतः अभिप्रेत है।
सामान्यत: 'वचन' शब्द का तात्पर्य है-बोलने की क्रिया अथवा आदमी के मुख से निकले हुए सार्थक शब्दों का समूह । धार्मिक सन्दर्भ में यदि 'वचन' का अर्थ लिया जाय तो वह होगा-शास्त्र आदि का वाक्य । बोलना एक कला है। इसी कला का परिणाम है-'वचन'। भाषा समिति से अनुप्राणित जो बोला जाता है वह 'वचन' वस्तुतः विशिष्ट होता है और उसका प्रयोजन होता है कल्याणकारी । साधु समुदाय में 'समिति' का प्रयोग सामान्य बात है । चलना, बोलना, खाना, उठाना-रखना, मलमूत्र का निक्षेपण करना इन सभी क्रियाओं में कर्ता जब सावधानी रखता है तो दृष्ट और अदृष्ट जीवों की विराधना से बचा जा सकता है । संतों के वचन वस्तुतः होते हैं-विशिष्ट।
__ सुख और समृद्धि से सम्पृक्त जीवन जीने के लिए सन्त के सभी यीक ‘समिति' पूर्वक सम्पन्न हुआ करते हैं। इन सभी क्रियाओं के करते समय
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