________________
इतिहास-दर्शन, संस्कृति-संरक्षण और प्राचार्य श्री
- डॉ. प्रेम सुमन जैन
अतीत की घटनाएँ, विचार-दर्शन, सभ्यता के बदलते प्रतिमान एवं संस्कृति के विभिन्न उन्मेष सब मिलकर किसी युग विशेष के इतिहास का निर्माण करते हैं । अतः इतिहास वह दर्पण है, जहाँ सभ्यता और संस्कृति के प्रतिबिम्ब झलकते हैं । ऐसे इतिहास की विभिन्न कड़ियों को मिलाकर उसे एक सुनिश्चित स्वरूप प्रदान करने से इतिहासकार की बहुश्रुतता एवं कठोर परिश्रम का दिग्दर्शन होता है । इतिहास-रत्न आचार्य श्री स्व. पूज्य हस्तीमलजी महाराज सा. ने "जैन धर्म का मौलिक इतिहास" के चार भागों का निर्माण कर जैन संस्कृति के क्षेत्र में ऐतिहासिक कार्य किया है। जैन संघ और संस्कृति की परम्परा हजारों वर्ष प्राचीन है। देश-विदेश के विस्तृत भू-भाग में फैली हुई है। सैकड़ों प्राचार्यों एवं संघों के उपभागों में बंटी हुई है। विभिन्न भाषाओं के, कला-साधनों के घटकों में अन्तनिहित है। उन सबको एक सूत्र में बाँधकर जैन धर्म के इतिहास के भवन को निर्मित करना पूज्य आचार्य श्री जैसे महारथी, मनीषी सन्त के पुरुषार्थ की ही बात थी, अन्य सामान्य इतिहासकार इसमें समर्थ नहीं होता। प्राचार्य श्री के पुरुषार्थ और इतिहास-दर्शन से जो यह "जैन धर्म का मौलिक इतिहास" लिखा गया है, वह जैन संस्कृति का संरक्षण-गृह बन गया है। यह एक ऐसी आधारभूत भूमि बनी है, जिस पर जैन संस्कृति के विकास के कितने ही भवन निर्मित हो सकते हैं।
देश-विदेश के मूर्धन्य विद्वानों ने आचार्य श्री द्वारा निर्मित इस इतिहास ग्रन्थरत्न की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। उस सबको संक्षेप में समेटना चाहें तो इस ग्रन्थ की निम्नांकित विशेषताएँ उजागर होती हैं
१. जैन धर्म का यह तटस्थ और प्रामाणिक इतिहास है।
-पं. दलसुख भाई मालवणिया (अहमदाबाद) २. जैन धर्म के इतिहास सम्बन्धी आधार-सामग्री का जो संकलन इसमें हुआ है, वह भारतीय इतिहास के लिए उपयोगी है।
-डॉ. रघुबीरसिंह (सीतामऊ)
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org