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• व्यक्तित्व एवं कृतित्व
काल में जैनधर्म पर अनेक संकट आये राजनीतिक और सांस्कृतिक जिनका शोधपूर्ण ढंग से इस भाग में विवरण दिया गया है। इसी समय ई० सन् १७७ में गजनवी सुलतान का आक्रमण हुआ। चैत्यवासी परम्परा सशक्त हुई। आचार्य वर्धमानसूरि से लेकर जिनपतिसूरि तक सभी आचार्यों ने ११वीं से १३वीं शताब्दी के बीच चैत्यवासी परम्परा से घनघोर संघर्ष किया। वर्धमानसूरि (वी०नि० की १६वीं शती) के प्रयत्न से चैत्ववासी परम्परा का ह्रास हुआ। उन्होंने दुर्लभराज की सभा में जाकर सूराचार्य और उनके शिष्यों को पराजित किया। और क्रियाद्धारों की श्रृंखला का सूत्रपात हुआ । जिनेश्वरसूरि और अभयदेवसूरि ने भी यह क्रम जारी रखा। पर अभयदेवसूरि ने कुछ समन्वयात्मक पद्धति का आश्रय लिया। चैत्यवासी परम्परा के प्राचार्य द्रोणाचार्य ने भी इस पद्धति को स्वीकार किया। बाद में उत्तरकालीन प्राचार्य जिनबल्लभसूरि, जिनदत्त सूरि, वादिदेवसूरि, हेमचन्द्रसूरि, कुमारपाल आदि के योगदान पर विशद प्रकाश डाला गया है।
जिनदत्तसूरि से वि० सं० १२०६ में खरतरगच्छ का प्रारम्भ हुआ। चैत्यवासियों को पराजित कर दुर्लभराज का उसे आश्रय मिला। बाद में उपकेशगच्छ, अंचलगच्छ, तपागच्छ, बड़गच्छ आदि का वर्णन लेखक ने अच्छे ढंग से किया है और बताया है कि चैत्यवासी परम्परा द्वारा आविष्कृत अनेक मान्यताओं का प्रभाव सुविहित परम्पराओं पर अनेक प्रकार के क्रियाद्धारों के उपरान्त भी बना रहा । (पृ० ६३३)।
इसके बाद लगभग २०० पृष्ठों में अध्यात्मिक साधक लोकाशाह की जीवनी और साधना पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है ।
कुल मिलाकर इस खण्ड में निम्नलिखित विशेषतायें द्रष्टव्य हैं
१. जैनधर्म के विरोध में लिंगायत सम्प्रदाय का उद्भव और जैनों का सामूहिक बध जैसे अत्याचार का प्रारम्भ । फलतः दक्षिण में जैन संख्या का कम हो जाना।
२. चैत्यवासियों का वि० सं० १०८० से ११३० तक अधिक प्रभुत्व और फिर क्रमशः ह्रास ।
३. चालुक्कराज बुक्कराय द्वारा जैनों का वैष्णवों और शैवों के साथ समझौता कराकर उनकी रक्षा करना।
४. क्रियोद्धार का प्रारम्भ वि० सं० १०८० से १५३० के बीच और
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