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________________ • प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा. की ११वीं शताब्दी में प्रतिफलित हुई। उसने मध्यम मार्ग को अपनाकर मठ, नसियां, बस्तियां आदि बनाई, शिक्षण संस्थाएँ शुरू की, ग्रन्थरचना की, विधिविधान, कर्मकाण्ड, मन्त्र-तन्त्र तैयार हुए । फलतः भट्टारक परम्परा की लोकप्रियता काफी बढ़ गई। इस परम्परा के शिथिलाचार की भर्त्सना प्राचार्य कुन्दकुन्द ने भी की है जिनका समय आचार्य श्री ने ई० सन् ४७३ अनुमानित किया है। भट्टारक परम्परा के प्रथम रूप को लेखक के अनुसार दिगम्बरःश्वेताम्बरयापनीय संघों के श्रमणों के बीच ही वी० नि० सं० ६४० से लेकर ८८० तक देखा जा सकता है। इन भट्टारकों ने भूमिदान, द्रव्यग्रहण आदि परिग्रह रखना प्रारम्भ कर दिया था। दूसरे रूप को नन्दिसंघ की पट्टाबली में खोजा। इस परम्परा के पूर्वाचार्य प्रारम्भ में प्रायः नग्न तदनन्तर अर्ध नग्न और एकवस्त्रधारी रहते थे। विक्रम की तेरहवीं शताब्दी से सवस्त्र रहने लगे। तीसरे रूप में तो ये आचार्य गृहस्थों से भी अधिक परिग्रही बन गये (पृ० १४३)। राजाओं के समान वे छत्र, चमर, सिंहासन, रथ, शिविका, दास, दासी, भूमि, भवन आदि चल-अचल सम्पत्ति भी रखने लगे । श्वेताम्बर परम्परा में भट्टारक परम्परा को श्रीपूज्य परम्परा अथवा यति परम्परा कहा जाने लगा। इस परम्परा पर यापनीय परम्परा का प्रभाव रहा है। लेखक ने "जैनाचार्य परम्परा महिमा" नामक पाण्डुलिपि के आधार पर अपना विवरण प्रस्तुत किया है। यापनीय संघ की उत्पत्ति दिगम्बर आचार्य श्वेताम्बर परम्परा से और श्वे. आचार्य दिग० परम्परा से मानते हैं। यह संघ भेद वी०नि० सं० ६०६ में हुआ। उनकी विभिन्न मान्यताओं का भी उल्लेख लेखक ने किया है। अप्रतिहत विहार को छोड़कर नियतनिवास, मन्दिर-निर्माण, चरणपूजा आदि शुरू हुए । इस प्रसंग में अनेक नये तथ्यों का उल्लेख यहाँ मिलता है। लेखक ने इन सभी परम्पराओं को द्रव्य-परम्परा कहा है जो मूल (भाव) परम्परा के स्थान पर प्रस्थापित हुई हैं। भावपरम्परा के पुनः संस्थापित करने के लिए अनेक मुमुक्षुओं ने प्रयत्न किया। 'महानिशीथ' सूत्र ने इन दोनों परम्पराओं का समन्वय किया है । प्राचार्य हरिभद्र, सिद्धसेन दिवाकर, वृद्धवादी-जिनदासगणिमहत्तर, नेमिचंद्र, सिद्धान्त चक्रवर्ती आदि प्राचार्यों ने समन्वय पद्धति का जो प्रयास किया, उसका विशेष परिणाम नहीं आया । फलस्वरूप उन विधि-विधानों को सुविहित परम्परा के गण-गच्छों ने तो अपना लिया परन्तु द्रव्य परम्पराओं ने समन्वय की दृष्टि से 'महानिशीथ' में स्वीकृत भाव परम्परा द्वारा निहित श्रमणाचार को नहीं अपनाया। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003843
Book TitleJinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1992
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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