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________________ • प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा. • ११५ आगम-वाचनाओं के पश्चात् मिल नहीं सके, इस कारण दोनों वाचनाओं में रहे हुए पाठ-भेदों का निर्णय अथवा समन्वय नहीं हो सका (पृ० ६५३)। लगभग १५० वर्ष बाद आचार्य देवद्धिगणी क्षमाश्रमण ने वी० नि० सं०६८० में बल्लभी में आगमों को लिपिबद्ध कराया। उनके स्वर्गारोहण के बाद पूर्वज्ञान का विच्छेद हो गया। परन्तु दिगम्बर परम्परा में पूर्वज्ञान का विच्छेद अन्तिम दश पूर्वधर धर्मसेन के स्वर्गस्थ होते ही वी० नि० सं० ३४५ में हुआ। दोनों परम्परात्रों की मान्यताओं में यह ६५५ वर्ष का अन्तर विचारणीय है (पृ० ७००)। आचार्य श्री की समन्वयात्मक दृष्टि में दि० परम्परा में द्वादशांगी की तरह अंगबाह्य आगम भी विच्छिन्न की कोटि में गिने जाते हैं पर अंगबाह्य आगमों की विलुप्ति का कोई लेख देखने में उन्हें नहीं आया। स्त्रीमुक्ति, केवलिभक्ति आदि छोटे-बड़े ८४ मतभेदों के अतिरिक्त शेष सभी सिद्धान्तों का प्रतिपादन दोनों परम्पराओं में पर्याप्तरूपेण समान ही मिलता है । उनमें जो अंतर है वह नाम, शैली और क्रम का है । इसी क्रम में उन्होंने यहाँ दिगम्बर परम्परा में मान्य आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि को वी० नि० सं० ८०० से भी पश्चाद्वर्ती बताया है और पार्यश्याम (पन्नवणा सूत्र के रचयिता) को वी० नि० सं० ३३५ से ३७६ के बीच प्रस्थापित किया है। (पृ० ७२३) । यहीं उन्होंने पन्नवणा और षट्खण्डागम की तुलना भी प्रस्तुत की है। इस भाग की निम्नलिखित विशेषताएँ अब हम इस प्रकार देख सकते हैं १. एक हजार वर्ष का राजनीतिक और सामाजिक इतिहास जैनधर्म के परिप्रेक्ष्य में। २. नियुक्तिकार भद्रवाहु श्रुतकेवली भद्रबाहु नहीं थे, निमित्तज्ञ भद्रबाहु (द्वितीय) थे। ३. अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु दुष्काल के समय दक्षिण की ओर नहीं, नेपाल की ओर गये थे। ४. अन्तिम चतुर्दश पूर्वधर प्राचार्य भद्रबाहु के पास मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त का दीक्षित बताया जाना भ्रमपूर्ण है। छठी शताब्दी में हुए प्राचार्य भद्रबाहु और उनके शिष्य चन्द्रगुप्ति की दक्षिण विहार की घटना को भूल से इसके साथ जोड़ दिया गया है । श्रवण बेलगोला की पार्श्वनाथ वसति पर प्राप्य शिलालेख इसका प्रमाण है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003843
Book TitleJinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1992
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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