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• प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा.
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जगह ही स्थिर रहते हैं । इस काल में धर्मकरणी की प्रेरणा देते हुए आचार्य श्री कहते हैं
"जीव की जतना कर लीजे रे।
आयो वर्षावास धर्म की करणी कर लीजे रे। दया धर्म को मूल समझ कर, समता रस पीजे रे ॥"
पर्युषण पर्व सब पर्यों का राजा है। इसमें ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप की आराधना करते हुए अपने स्वभाव में स्थित हुआ जाता है। कृत पापों की आलोचना कर क्षमापना द्वारा आत्मशुद्धि की जाती है। विषय-कषाय घटाकर आत्मगुण विकसित किये जाते हैं। आत्मोल्लास के क्षणों में आचार्य श्री का कवि हृदय गा उठता है
"यह पर्व पर्युषण पाया, सब जग में आनन्द छाया रे । तप-जप से कर्म खपावो, दे दान द्रव्य-फल पावो।
ममता त्यागी सुख पाया रे ।। समता से मन को जोड़ो, ममता का बन्धन तोड़ो,
हे सार ज्ञान का भाया रे॥"
इस प्रकार आचार्य श्री ने समाज में आत्म-बोध, समाज-बोध और पर्वबोध जागृत करने की दृष्टि से जो काव्यमय उपदेश दिया है, वह आत्मस्पर्शी और प्रेरणास्पद है।
३. चरित काव्य-चरित काव्य सृजन की समृद्ध परम्परा रही है। रामायण और महाभारत दो ऐसे ग्रंथ रहे हैं, जिनको आधार बनाकर विविध चरित काव्य रचे गये हैं। जैन साहित्य में त्रिषष्टिश्लाका पुरुषों के जीवन वृत्त को आधार बनाकर विपुल परिमाण में चरित काव्य लिखे गये हैं। कथा के माध्यम से तत्त्वज्ञान को जनसाधारण तक पहुँचाने की यह परम्परा आज तक चली आ रही है । कथा के कई रूप हैं....यथा-धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक, लौकिक आदि । प्राचार्य श्री ने जिन चरित काव्यों की रचना की है, वे ऐतिहासिक और धार्मिक-आगमिक आधार लिए हुए हैं।
आचार्य श्री इतिहास को वर्तमान पीढ़ी के लिए अत्यधिक प्रेरक मानते हैं । इतिहास ऐसा दीपक है, जो भूले भटकों को सही रास्ता दिखाता है । आपके ही शब्दों में
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