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• प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा.
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कर लो श्रुतवाणी का पाठ, भविक जन, मन-मल हरने को। बिन स्वाध्याय ज्ञान नहिं होगा, ज्योति जगाने को। राग-रोष की गाँठ गले नहीं, बोधि मिलाने को।
प्राचार्य श्री बार-बार कहते हैं "स्वाध्याय करो, स्वाध्याय करो" क्योंकि "स्वाध्याय बिना घर सूना है, मन सूना है सद्ज्ञान बिना।"
प्राचार्य श्री का आह्वान है कि यदि दुःख मिटाना है तो अज्ञान के अंधकार को दूर करो और वह स्वाध्याय से ही संभव है।
जीवन का और समाज का भी मुख्य लक्ष्य सुख व शांति है और यह बिना समता भाव के संभव नहीं। समता की प्राप्ति के लिए प्राचार्य श्री ने सामायिक पर बल दिया है। आपकी प्रेरणा पंक्ति है—“जीवन उन्नत करना चाहो तो सामायिक साधन कर लो।" सामायिक की साधना समता रस का पान है। इससे विषमता मिटती है और जीवन-व्यवहार में समता आती है।
प्राचार्य श्री सामाजिक और राष्ट्रीय एकता के पक्षपाती हैं । आप व्यक्ति और समाज के सम्बन्ध को अंग-अंगी के रूप में देखते हैं
"विभिन्न व्यक्ति अंग समझ लो, तन-समाज सुखदायी । “गजुमुनि" सबके हित सब दौड़ें, दुःख दरिद्र नस जाहिं ॥"
आदर्श समाज-रचना के लिए आचार्य श्री विनय, मैत्री, सेवा, परोपकार, शील, सहनशीलता, अनुशासन आदि जीवन मूल्यों को आवश्यक मानते हैं । प्रत्येक व्यक्ति ईमानदारी और विवेकपूर्वक देवभक्ति, गुरुसेवा, स्वाध्याय, संयम, तप और दान रूप षटकर्म की साधना करे, तो वह न केवल अपने जीवन को उच्च बना सकता है वरन् आदर्श समाज का निर्माण भी कर सकता है।
आचार्य श्री समाज उत्थान के लिए नारी शिक्षण को विशेष महत्त्व देते हैं। आप नारी जाति को प्रेरणा देते हैं कि वह सांसारिक राग-रंग और देह के बनाव-शृंगार में न उलझे वरन् शील और संयम से अपने तन को सजाये
१. शील और संयम की महिमा, तुम तन शोभे हो।
सोना चांदी हीरक से, नहिं खान पूजाई हो । २. सदाचार सादापन धारो, ज्ञान, ध्यान से तप सिणगारो।
पर उपकार ही भूषण, खास समझो मर्म को जी।
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