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करण सिद्धान्त : भाग्य-निर्माण की प्रक्रिया ]
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उदीरणा को प्रक्रिया :
उदीरणा के लिए पहले शुभ-भावों से अपवर्तना करण द्वारा पूर्व में संचित कर्मों की स्थिति को घटा दिया जाता है। स्थिति घट जाने पर कर्म नियत समय से पूर्व उदय में आ जाते हैं। उदाहरणार्थ जब कोई व्यक्ति किसी दुर्घटना में अपनी पूरी आयु भोगे बिना ही मर जाता है तो उसे अकाल मृत्यु कहा जाता है। इसका कारण आयु कर्म की स्थिति अपवर्तना करण द्वारा घटकर उदीरणा हो जाना ही है। नियम :
(१) बिना अपवर्तन के उदीरणा नहीं होती है । (२) उदीरणा किये कर्म उदय में आकर फल देते हैं । (३) उदीरणा के उदय में आकर जितने कर्म कटते हैं (निर्जरित होते
हैं) उदय में कषाय भाव की अधिकता होने से उनसे अनेक गुणे कर्म अधिक भी बन्ध सकते हैं।
८. उपशमना करण :
कर्म का उदय में आने के अयोग्य हो जाना उपशमना करण है । जिस प्रकार भूमि में स्थित पौधे वर्षा के जल से भूमि पर पपड़ी आ जाने से दब जाते हैं. बढ़ना रुक जाता है, प्रकट नहीं होते हैं। इसी प्रकार कर्मों को ज्ञान बल या संयम से दबा देने से उनका फल देना रुक जाता है। इसे उपशमना करण कहते हैं । इससे तत्काल शान्ति मिलती है । जो आत्मशक्ति को प्रकट करने में सहायक होती है। अथवा जिस प्रकार शरीर में घाव हो जाने से या आपरेशन करने से पीड़ा या कष्ट होता है। उस कष्ट का अनुभव न हो इसके लिए इन्जेक्शन या दवाई दी जाती है जिससे पीड़ा या दर्द का शमन हो जाता है । घाव के विद्यमान रहने पर भी रोगी उसके परिणामस्वरूप उदय होने वाली वेदना से उस समय बचा रहता है । इसी प्रकार ज्ञान और क्रिया विशेष से कर्म प्रकृतियों के कुफल का शमन किया जाता है। यही उपशमना करण है। परन्तु जिस प्रकार इन्जेक्शन या दवा से दर्द का शमन रहने पर भी घाव भरता रहता है और घाव भरने का जो समय है वह घटता रहता है। इसी प्रकार कर्म-प्रकृतियों के फलभोग का शमन होने पर भी उनकी स्थिति, अनुभाग व प्रदेश घटता रह सकता है।
नियम : उपशमना करण मोहनीय कर्म की प्रकृतियों में ही होता है ।
करण-ज्ञान में महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त यह है कि वर्तमान में जिन कर्म प्रकृतियों का बन्ध हो रहा है। पुरानी बन्धी हुई प्रकृतियों पर उनका प्रभाव
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