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________________ ८० ] नियम : निकाचित कर्म में संक्रमण व उदीरणा, उद्वर्तन, अपवर्तन करण नहीं होते हैं । कोई-कोई प्राचार्य सामान्य सा उद्वर्तन - अपवर्तन होना मानते हैं । ४. उद्वर्तना करण : 1 जिस क्रिया या प्रवृत्ति से बन्धे हुए कर्म की स्थिति और रस बढ़ता है, उसे उद्वर्तना करण कहते हैं । ऐसा ही पहले बांधे हुए कर्म - प्रकृति के अनुरूप पहले से अधिक प्रवृत्ति करने तथा उसमें अधिक रस लेने से होता है । जैसे पहले किसी ने डरते-डरते किसी की छोटी सी वस्तु चुरा कर लोभ की पूर्ति की फिर वह डाकुओंों के गिरोह में मिल गया तो उसकी लोभ की प्रवृत्ति का पोषण हो गया, वह बहुत बढ़ गई तथा अधिककाल तक टिकाऊ भी हो गई, वह निधड़क डाका डालने व हत्याएँ करने लगा। इस प्रकार उसकी पूर्व की लोभ की वृत्ति का पोषण होना, उसकी स्थिति व रस का बढ़ना उद्वर्तना कहा जाता है । जिस प्रकार खेत में उगे हुए पौधे को अनुकूल खाद व जल मिलने से वह हृष्ट-पुष्ट होता है, उसकी आयु व फलदान शक्ति बढ़ जाती है इसी प्रकार पूर्व में बन्धे हुए कर्मों को उससे अधिक तीव्ररस, राग-द्व ेष, कषाय का निमित्त मिलने से उनकी स्थिति और फल देने की शक्ति बढ़ जाती है । अथवा जिस प्रकार किसी ने पहले साधारण सी शराब पी, इसके पश्चात् उसने उससे अधिक तेज नशे वाली शराब पी तो उसके नशे की शक्ति पहले से अधिक बढ़ जाती है या किसी मधुमेह के रोगी ने शक्कर या कुछ मीठा पदार्थ खा लिया फिर वह अधिक शक्कर वाली मिठाई खा लेता है तो उस रोग की पहले से अधिक वृद्धि होने की स्थिति हो जाती है। इसी प्रकार विषय सुख में राग की वृद्धि होने से तथा दुःख में द्वेष बढ़ने से तत्संबंधी कर्म की स्थिति व रस अधिक बढ़ जाता है । अतः हित इसी में है कि कषाय (रस) की वृद्धि कर पाप कर्मों की स्थिति व रस को न बढ़ाया जाय और पुण्य कर्म को न घटाया जाय । नियम : [ कर्म सिद्धान्त ( १ ) सत्ता में स्थित कर्म की स्थिति व रस से वर्तमान में बध्यमान कम की स्थिति व रस का अधिक बन्ध होता है, तब ही उद्वर्तन करण सम्भव है | (२) संक्लेश ( कषाय) की वृद्धि से आयु कर्म को छोड़कर शेष कर्मों की सब प्रकृतियों की स्थिति का एवं सब पाप प्रकृतियों के अनुभाग (रस) में उद्वर्तन होता है । विशुद्धि ( शुभ भावों) से पुण्य प्रकृतियों के अनुभाग (रस) में उद्वर्तन होता है । ५. श्रपवर्तना करण : पूर्व में बन्धे हुए कर्मों की स्थिति और रस में कमी या जाना अपवर्तनाकरण है । पहले किसी अशुभ कर्म का बन्ध करने के पश्चात् जीव यदि फिर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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