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करण सिद्धान्त : भाग्य-निर्माण की प्रकिया
0 श्री कन्हैयालाल लोढ़ा
जैन-दर्शन की दृष्टि में कम भाग्य विधाता है, कर्म के नियम या सिद्धान्त विधान है। दूसरे शब्दों में कहें तो कर्म ही भाग्य है। जैन कर्म ग्रंथों में कर्म-बंध और कर्म फल भोग की प्रक्रिया का अति विशद वर्णन है। उनमें जहाँ एक ओर यह विधान है कि बंधा हुआ कर्म फल दिये बिना कदापि नहीं छूटता है, वहीं दूसरी ओर उन नियमों का भी विधान है, जिनसे बंधे हुए कर्म में अनेक प्रकार से परिवर्तन भी किया जा सकता है। कर्म बंध से लेकर फल-भोग तक की इन्हीं अवस्थाओं व उनके परिवर्तन की प्रक्रिया को शास्त्र में करण कहा गया है। कर्म बंध व उदय से मिलने वाले फल ही भाग्य कहा जाता है। कर्म में परिवर्तन होने से उसके फल में, भाग्य में भी परिवर्तन हो जाता है। अतःकरण को भाग्य परिवर्तन की प्रक्रिया भी कहा जा सकता है। महापुराण में कहा है
विधि, स्रष्टा, विधाता, दैव कर्म पुराकृतम् ।
ईश्वरेश्चेती, पयार्यकर्मवेधस् ॥४३७।। _ विधि, स्रष्टा, विधाता, दैव, पुराकृतम्, ईश्वर ये कर्म रूपी ब्रह्मा के पर्यायवाची शब्द हैं । अर्थात् कर्म ही वास्तव में ब्रह्म या विधाता है। करण पाठ हैं :
व्याकरण की दृष्टि से करण उसे कहा जाता है जिसकी सहायता से क्रिया या कार्य हो । दूसरे शब्दों में जो क्रिया या कार्य में सहायक कारण हो । उक्त आठ प्रकार की क्रिया से कर्म पर प्रभाव पड़ता है और उनकी अवस्था व फलदान की शक्ति में परिवर्तन होता है। अतः इन्हें करण कहा गया है। कर्मशास्त्रों में आगत इन करणों का विवेचन वनस्पति विज्ञान एवं चिकित्सा शास्त्र के नियमों व दृष्टान्तों द्वारा मनोविज्ञान एवं व्यावहारिक जीवन के आधार पर प्रस्तुत किया जा रहा है। १. बन्धन करण:
कर्म परमाणुओं का आत्मा के साथ सम्बन्ध होने को बंध कहा जाता है । यहाँ कर्म का बंधना या संस्कार रूप बीज का पड़ना बंधन करण है। इसे मनोविज्ञान की भाषा में ग्रंथि निर्माण भी कहा जा सकता है। इसी कर्म-बीज के
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