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कर्म-विचार
0 डॉ० प्रादित्य प्रचण्डिया 'दीति'
मिथ्यात्व आदि हेतुओं से निष्पन्न क्रिया कर्म है ।' कर्म आत्मा को मलिन करते हैं । उनकी गति गहन है । वह दुःख परम्परा का मूल है। कर्म मोह से उत्पन्न होता है और वह जन्म-मरण का मूल कारण भी है। संसारी जीव के रागद्वेष रूप परिणाम होते हैं। परिणामों से कर्मबंध के कारण जीव संसार चक्र में परिभ्रमण करता है। वस्तुतः कर्मबंध में आत्मपरिणाम (भाव) ही कारण है पर वस्तु बिल्कुल नहीं ।६ कर्म बंध वस्तु से नहीं, राग और द्वेष के अध्यवसाय (संकल्प) से होता है। जो अन्दर में रागद्वेष रूप भाव कर्म नहीं करता, उसे नए कर्म का बंध नहीं होता। जिस समय जीव जैसे भाव करता है वह उस समय वैसे ही शुभ-अशुभ कर्मों का बंध करता है ।
कर्म कर्ता का अनुगमन करता है । १० जीव कर्मों का बंध करने में स्वतन्त्र है परन्तु उस कर्म का उदय होने पर भोगने में उसके अधीन हो जाता है । जैसे कोई पुरुष स्वेच्छा से वृक्ष पर तो चढ़ जाता है किन्तु प्रमादवश नीचे गिरते समय परवश हो जाता है। कहीं जीव कर्म के अधीन होते हैं तो कहीं कर्म जीव के अधीन होते हैं ।१२ जैसे कहीं ऋण देते समय धनी बलवान होता है तो कहीं ऋण लौटाते समय कर्जदार बलवान होता है ।' 3 सामान्य की अपेक्षा कर्म एक है और द्रव्य तथा भाव की अपेक्षा दो प्रकार का है । कर्म पुद्गलों का पिण्ड द्रव्यकर्म है और उसमें रहने वाली शक्ति या उनके निमित्त से जीव में होने वाले रागद्वेष रूप विकार भावकर्म है ।१४ जो इन्द्रिय आदि पर विजय प्राप्त कर उपयोगमय (ज्ञानदर्शनमय) आत्मा का ध्यान करता है वह कर्मों से नहीं बंधता । अतः पौद्गलिक प्राण उसका अनुसरण कैसे कर सकते हैं ? अर्थात् उसे नया जन्म धारण नहीं करना पड़ता है ।'५ ___ ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय ये संक्षेप में आठ कर्म हैं ।१६ इन कर्मों का स्वभाव परदा, द्वारपाल, तलवार, मद्य, हलि, चित्रकार, कुम्भकार तथा भण्डारी के स्वभाव सदृश है ।१७ जो आत्मा के ज्ञान गुण को प्रकट न होने दे उसे ज्ञानावरण कहते हैं । जो दर्शनगुण को
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