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________________ ६८ ] [ कर्म सिद्धान्त करने वाला कर्म दर्शनावरण कर्म कहलाता है । मोहनीय कर्म के जाग्रत होने से जीव अपने स्वरूप को विस्मृत कर अन्य को अपना समझने लगता है । अन्तराय का शाब्दिक अर्थ है विघ्न । जिस कर्म के द्वारा दान, लाभ, व्यापार में विघ्न उत्पन्न होता है, उसे अन्तराय कर्म कहा जाता है । नरक, तियंच, मनुष्य तथा देव विषयक विविध योनियां- आकार में जीव को घेरनेवाला, रोकनेवाला कर्म वस्तुत: आयु कर्म कहलाता है । नाम कर्म के द्वारा शरीर और उसके विविध मुखी अवयवों की संरचना सम्पन्न होती है । जीव ऊँच तथा नीच कुल में जन्म लेता है, उसे गोत्र कर्म कहते हैं । जिसके द्वारा आत्मा को सुख-दुःख का अनुभव होता है, उसे वेदनीय कर्म कहते हैं । आत्मिक गुणों में कर्म का कोई स्थान नहीं है । अज्ञानता से कर्म आत्मगुणों को प्रच्छन्न करता है । आत्म- गुणों को आकर्षित और प्रभावित करने के लिए कर्म - कुल जिस मार्ग को अपनाता है, उसे प्रास्रव द्वार कहा जाता है । प्रस्रव भी एक दार्शनिक तथा पारिभाषिक शब्द है । इसके अर्थ होते हैं कर्मों के आने का द्वार । कर्म-संचार वस्तुतः श्रास्रव कहलाता है । पाप और पुण्य की सेव को भी दो भागों में विभक्त किया जा सकता है । यथा १- पुण्यास्रव २- पापास्रव । जिनेन्द्र भक्ति, जीवदया आदि शुभ रूप कर्म - क्रिया पुण्यास्रव कहलाती है जबकि जीव हिंसा, झूठ बोलना आदि कर्म - क्रिया पापास्रव होती है । इससे इसे शुभ और अशुभ भी कहा जाता है । अब यहां इन आठ कर्मों के प्रास्रव रूप को संक्षेप में प्रस्तुत करेंगे । आस्रव मार्ग वस्तुतः बहुमुखी होता है । ज्ञान केन्द्र तक पहुँचने के लिए आस्रव द्वार दशों दिशाओं से संचार हेतु सर्वदा खुला रहता है । आस्रव मार्ग को ही सावधानीपूर्वक जानना और पहिचानना आवश्यक है । ज्ञान और ज्ञानी से ईर्ष्या करना, ज्ञान-साधनों में विघ्न उत्पन्न करना, अपने ज्ञान को प्रच्छन्न करना तथा दूसरों को उससे अवगत न होने देना, गुरु का नाम छिपाना, ज्ञान का गर्व करना इत्यादिक कर्म - क्रियाएँ ज्ञानावरण कर्म का श्रास्रव कहलाती हैं । जिनेन्द्र अथवा अर्हत् भगवान के दर्शनों में विघ्न डालना, किसी की आँख फोड़ना, दिन में सोना, मुनिजनों को देखकर मन में ग्लानि करना तथा अपनी दृष्टि का अभिमान करना इत्यादिक कर्म - क्रियाओं से दर्शनावरण कर्म का व प्रशस्त होता है । अपने को तथा दूसरों को दुःख उत्पन्न करना, शोक करना, रोना, विलाप करना, जीव बध करना इत्यादिक कार्यों से वेदनीय कर्म का प्रस्रव होता है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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