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________________ ६० ] [ कर्म सिद्धान्त इस उत्क्रान्ति के समय में बढ़ती हुई आत्मा जब परमात्म शक्ति को जागृत करने के लिए अत्यन्त उग्र हो जाती है, आयुष्य स्वल्प रहता है, कर्म अधिक रहते हैं तब आत्मा और कर्मों के मध्य भयंकर संघर्ष होता है। प्रात्म प्रदेश कर्मों से लोहा लेने के लिये देह को सीमा का परित्याग करके रणस्थली में उतर जाते हैं । आत्मा ताकत के साथ संघर्ष करती है । यह युद्ध कुछ मील पर्यन्त हो नहीं रहता, सम्पूर्ण लोक क्षेत्र को अपने दायरे में लाता है। इस महायुद्ध में बहुसंख्यक कर्म क्षय हो जाते हैं। अवशेष कर्म अल्प मात्रा में रहते हैं। वे भी इतने दुर्बल और शिथिल हो जाते हैं कि अधिक समय पर्यन्त ठहरने की शक्ति उनमें नहीं रहती । अतः इसको उखाड़ फेंकने के लिए छोटा सा हवा का झोंका भी काफी है। कर्म-गीतिका कर्म तणी गत न्यारी, प्रभुजी कर्म तरणी गत न्यारी। अलख निरंजन सिद्ध स्वरूपी, पिण होय रयो संसारी ।।१।। कबहुक राज करे यही मण्डल, कबहुक रंक भिखारी । कबहुक हाथी समचक डोला, कबहुक खर असवारी ।।२।। कबहक नरक निगोद बसावत, कबहक सूर अवतारी। कबहुक रूप कुरूप को दरसन, कबहुक सूरत प्यारी ॥३॥ बड़े-बड़े वृक्ष ने छोटे-छोटे पतवा, बेलड़ियांरी छवि न्यारी। पतिव्रता तरसे सुत कारण, फुहड़ जण-जण हारी ।।४।। मुर्ख राजा राज करत है, पंडित भए भिखारी । कुरंग नेण सुरंग बने अति, चूंधी पदमण नारी ॥५॥ 'रतनचन्द' कर्मन की गत को, लख न सके नर नारी। आपो खोज करे आतम वश, तो शिवपुर छै त्यारी ।।६।। -प्राचार्य श्री रतनचन्द्रजी म. सा. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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