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कर्म-विमर्श ]
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सकता । अतः कर्म पुद्गल है। कर्म भौतिक है; जड़ है। चूकि वह एक प्रकार का बन्धन है । जो बन्धन होता है वह भौतिक होता है । बेड़ी मानव को आबद्ध करती है । कूल (किनारा) नदी को घेरते हैं। बड़े-बड़े बाँध पानी को बाँध देते हैं । महाद्वीप समुद्र से प्राबद्ध हैं । ये सर्व भौतिक हैं अतः बन्धन हैं।
___ आत्मा की वैकारिक अवस्थाएँ अभौतिक होती हुई भी बन्धन की भाँति प्रतीत होती हैं । पर वास्तविकता यह है कि बंधन नहीं, बंध जनित अवस्थाएं हैं । पुष्टकारक भोजन से शक्ति संचित होती है । पर दोनों में समानता नहीं है। शक्ति भोजन जनित अवस्था है । एक भौतिक है, अन्य अभौतिक है।
धर्म, अधर्म, आकाश, काल और जीव ये पाँच द्रव्य अभौतिक हैं। अतः किसी के बन्धन नहीं है । भारतीयेतर दर्शनों में कर्म को अभौतिक माना है।
कर्म सिद्धान्त यदि तात्विक है तो पाप करने वाले सुखी और पुण्य करने वाले दुःखी क्यों देखे जाते हैं ? यह प्रश्न भी समस्या मूलक नहीं है। क्योंकि बन्धन और फल की प्रक्रिया भी कई प्रकार से होती है। जैन दर्शनानुसार चार भंग हैं । यथा
पुण्यानुबंधी पाप, पापानुबंधी पुण्य, पुण्यानुबंधी पुण्य व पापानुबंधी पाप । भोगी मनुष्य पूर्वकृत पुण्य का उपभोग करते हुए पाप का सर्जन करते हैं । वेदनीय कर्म को समभाव से सहनकर्ता पाप का भोग करते हुए पुण्यार्जन करते हैं । सर्व सामग्री से सम्पन्न होते हुये भी धर्मरत प्राणी पुण्य का भोग करते हुए पुण्य संचयन करते हैं । हिंसक प्राणी पाप भोगते हुए पाप को जन्म देते हैं ।
उपर्युक्त भंगों से यह स्पष्ट है कि जो कर्म मनुष्य आज करता है उसका प्रतिफल तत्काल नहीं मिलता। बीज वपन करने वाले को कहीं शीघ्रता से फल प्राप्त नहीं होता । लम्बे समय के बाद ही फल मिलता है। इस प्रकार कृत कर्मों का कितने समय पर्यंत परिपाक होता है, फिर फल की प्रक्रिया बनती है। पाप करने वाले दुःखी और पुण्य करने वाले सुखी इसीलिए हैं कि वे पूर्व कृत पापपुण्य का फल भोग रहे हैं। अमूर्त पर मूर्त का प्रभाव :
कर्म मूर्त है जबकि आत्मा अमूर्त है। अमूर्त आत्मा पर मूर्त का उपघात और अनुग्रह कैसे हो सकता है जबकि अमूर्त आकाश पर चन्दन का लेप नहीं हो सकता । न मुष्टि का प्रहार भी । यह तर्क समीचीन है पर एकांत नहीं है । चूकि ब्राह्मी आदि पौष्टिक तत्त्वों के सेवन से अमूर्त ज्ञान शक्ति में स्फुरणा देखते हैं। मदिरा आदि के सेवन से संमूर्छना भी। यह मूर्त का अमूर्त पर स्पष्ट प्रभाव है। यथार्थ में संसारी आत्मा कथंचित मूर्त भी है। मल्लिषेण सूरि के शब्दों में
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