SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्म-विमर्श ] [ ५१ प्रदेशों में जो उदीयमान कषाय थी, उसका बाह्य निमित्त मिलने पर विपाकीकरण होता है । उस विपाकीकरण को ही कषाय में उदोरणा कहा जाता है। ___ आयुष्य कर्म की उदीरणा शुभ-अशुभ दोनों योगों से होती है । अनशन, संलेखना आदि शुभ योग से आत्मघात, अपमृत्य आदि के अवसरों पर अशूभ योग की उदीरणा है पर इससे उक्त कथन पर किसी भी प्रकार की आपत्ति नहीं होती। क्योंकि आयुष्य कर्म की प्रक्रिया में सात कर्मों की काफी भिन्नता है । प्रयत्न विशेष से सजातीय प्रकृतियों में परस्पर परिवर्तित होना संक्रमण है । कर्मों का अन्तमुहूर्त पर्यन्त तक सर्वथा अनुदय अवस्था का नाम उपशम है। निधत्त अवस्था कर्मों की सघन अवस्था है । इस अवस्था में कर्म और आत्मा का ऐसा सम्बन्ध जुड़ता है जिसमें उदवर्तन, अपवर्तन के अलावा और कोई प्रयत्न नहीं होता । निकाचित कर्मों का सम्बन्ध आत्मा के साथ बहुत ही गाढ़ है। इसमें भी किसी भी प्रकार का परिवर्तन कदापि नहीं होता। सर्व करण अयोग्य हो जाते हैं । निकाचित के सम्बन्ध में एक मान्यता है कि इसको विपाकोदय में भोगना अनिवार्य है । एक धारणा यह है कि निकाचित भी बहुधा प्रदेशोदय से क्षीण करते हैं। चूकि सैद्धान्तिक मान्यता है कि नरक गति की स्थिति कम से कम १००० सागर के सातिय दो भाग २०५ सागर के करीब है। नरकायु की उत्कृष्ट स्थिति ३३ सागरोपम है । यदि नरक का निकाचित बन्धन है तो २०५ सागर की स्थिति को विपाकोदय में कहाँ कैसे भोगेंगे ? जबकि नरकायु अधिकतम ३३ सागर का ही है । जहां विपाकोदय भोगा जा सकता है। इससे सहज ही यह सिद्ध हो जाता है कि निकाचित से भी हम बिना विपाकोदय में मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं । प्रदेशोदय के भोग से निर्धारण हो सकता है । निकाचित और दलिक कर्मों में सबसे बड़ा अन्तर यह है कि दलिक में उदवर्तन, अपवर्तन आदि अवस्थाएं बन सकती हैं पर निकाचित में ऐसा परिवर्तन नहीं होता। शुभ परिणामों की तीव्रता से दलिक कर्म प्रकृतियों का ह्रास होता है और तपोबल से निकाचित का भी। -सव्व पगई मेवं परिणाम वासाद वक्कमो होज्जापापम निकाईयाणं निकाइमाणापि। प्रात्मा का आन्तरिक वातावरण : आत्मा की आन्तरिक योग्यता के तारतम्य का कारण कर्म ही है। कर्म संयोग से वह (आन्तरिक योग्यता) आवृत्त होती है या विकृत होती है। कर्म नष्ट होने पर ही उसका शुभ स्वरूप प्रकट होता है । कर्ममुक्त आत्मा पर बाहरी वस्तु का प्रभाव कदापि नहीं पड़ता। कर्मबद्ध आत्मा पर ही बाहरी परिस्थिति Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy