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[ कर्म सिद्धान्त
उबुद्ध हो सकता है कि - प्रज्ञापना, उत्तराध्ययन इन दोनों आगमों में इस कर्म की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की बताई है और भगवती सूत्र में दो समय की कही गई है । इन दोनों कथनों में विरोध लगता है पर ऐसा है नहीं कारण कि मुहूर्त के अन्तर्गत जितना भी समय आता है वह अन्तर्मुहूर्त कहलाता है । दो समयको अन्तर्मुहूर्त कहने में कोई बाधा या विसंगति नहीं है । वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त है, ऐसा कथन सर्वथा - संगत है ।
४. मोहनीय कर्म :
जो कर्म आत्मा में मूढ़ता उत्पन्न करता है वह मोहनीय कर्म कहलाता है । अष्टविध कर्मों में यह कर्म सबसे अधिक शक्तिशाली है, सातकर्म प्रजा हैं तो मोहनीय कर्म राजा है । इसके प्रभाव से वीतराग भाव भी प्रगट नहीं होता है । वह आत्मा के परम शुद्ध भाव को विकृत कर देता है । इसके कारण ही आत्मा राग-द्वेषात्मक विकारों से ग्रसित हो जाता है ।
इस कर्म की परितुलना मदिरापान से की गई है । जैसे व्यक्ति मदिरापान से परवश हो जाता है उसे किञ्चित् मात्र भी स्व तथा पर के स्वरूप का भान नहीं होता है ।" वह स्व-पर के विवेक से विहीन हो जाता है । वैसे ही मोहनीय कर्म के उदय काल में जीव को हिताहित का, तत्त्व-तत्त्व का भेद - विज्ञान नहीं हो सकता, वह संसार के ताने-बाने में उलझा हुआ रहता है । मोहनीय कर्म का वर्गीकरण दो प्रकार से किया गया है१ - दर्शन मोहनीय २ - चारित्र मोहनीय
जो व्यक्ति मदिरापान करता है, उसकी बुद्धि कुण्ठित हो जाती, मूच्छित हो जाती है । ठीक इसी प्रकार दर्शन मोहनीय कर्म के उदय पर आत्मा का विवेक भी विलुप्त हो जाता है, यहीं कारण है कि वह अनात्मीय-पदार्थों को आत्मीय समझने लगता है ।
१.
मज्जं व मोहरणीयं
प्रथम कर्म ग्रन्थ- गाथा - १३
(ख) गोम्मटसार कर्मकाण्ड - २१ (ग) जह मज्जपागमूढो, लोए पुरिसो
परव्वसो होइ । तह मोहेणविमूढो, जीवो उ परव्वसो होइ ।। स्थानांग सूत्र २/४/१०५ टीका २. ( क ) मोहरिणज्जं पि दुविहं, दंसणे चरणे तहा । उत्तराध्ययन सूत्र ३३ / ८ ॥
(ख) मोहरिणज्जे कम्मे दुविहे पण्णत्ते तं जहा दंसरण मोहरिणज्जे चेव चरितमोहणिज्जे
चेव ॥
स्थानांग सूत्र २/४/१०५ ।।
( ग ) प्रज्ञापना सूत्र २३ / २ ।।
३. पंचाध्यायी २ / ६८-६-७ ।।
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