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________________ ३२ ] [ कर्म का सिद्धान्त होता है और जो कर्मवादी होता है, उसे क्रियावादी अवश्य ही होना पड़ता है, क्योंकि क्रिया से कर्म होते हैं। आत्मा की विभिन्न अवस्थाओं, गतियों और योनियों को तथा पुनर्जन्म सम्बन्धी कई घटनाओं को देखते हुए यह निःसंदेह कहा जा सकता है कि कर्मत्व को माने बिना ये सब सिद्ध नहीं होते। माता के गर्भ में आने से लेकर जन्म होने तक बालक को जो दुःख भोगने पड़ते हैं, उन्हें बालक के इस जन्म के कर्मफल तो नहीं कह सकते, क्योंकि गर्भावस्था में तो बालक ने कोई भी अच्छा या बुरा काम नहीं किया है और न ही उन दुःखों को माता-पिता के कर्मों का फल कह सकते हैं, क्योंकि मातापिता जो भी अच्छे-बुरे कार्य करें, उसका फल बालक को अकारण ही क्यों भोगना पड़े ? और बालक जो भी दुःख गर्भावस्था में भोगता है, उसे अकारण मानना तो न्यायोचित नहीं है, कारण के बिना कोई भी कार्य हो नहीं सकता, यह अकाट्य सिद्धान्त है। यदि यों कहा जाए कि गर्भावस्था में ही माता-पिता के आचार-विचार, आहार-विहार और शारीरिक-मानसिक अवस्थाओं का प्रभाव बालक पर पड़ने लगता है। ऐसी स्थिति में प्रश्न उठता है कि बालक को ऐसे माता-पिता क्यों मिले ? अन्ततोगत्वा, इसका उत्तर यही होगा कि गर्भस्थ शिशु के पूर्वजन्मकृत जैसे कर्म थे, तदनुसार उसे वैसे माता-पिता, सुखदुःख एवं अनुकूल-प्रतिकूल संयोग मिले । कई बार यह देखने में आता है कि माता-पिता बिलकुल अनपढ़ हैं, और उनका बालक प्रतिभाशाली विद्वान् है। बालक का शरीर तो माता-पिता के रज-वीर्य से बना है, फिर उनमें अविद्यमान ज्ञानतंतु बालक के मस्तिष्क में आए कहां से ? कहीं-कहीं इससे बिलकुल विपरीत देखा जाता है कि माता-पिता की योग्यता बहुत ही बढ़ी-चढ़ी है, लेकिन उनका लड़का हजार प्रयत्न करने पर भी विद्वान् एवं योग्य न बन सका, मूर्खराज ही रहा । कहीं-कहीं माता-पिता की सी ज्ञानशक्ति बालक में देखी जाती है। एक छात्रावास में एक ही कक्षा के छात्रों को एक-सी साधन-सुविधा, देखरेख, परिस्थिति और अध्यापक मंडली मिलने पर तथा समय भी एक-सरीखा मिलने पर कई छात्रों की बौद्धिक क्षमता, प्रतिभा-शक्ति और स्फुरणा गजब की होती है, जबकि कई छात्र मन्द बुद्धि, पढ़ने में सुस्त, बौद्धिक क्षमता में बहुत कमजोर होते हैं। इसके अतिरिक्त एकएक साथ जन्मे हुए दो बालकों को एक-सी परवरिश एवं देखभाल होने पर भी समान नहीं होते। एक स्थूल बुद्धि एवं साधारण-सा रहता है, दूसरा विलक्षण, कुशल और योग्य बन जाता है, एक का रोग से पीछा नहीं छूटता, दूसरा मस्त पहलवान-सा है। एक दीर्घायु बनता है, जबकि दूसरा असमय में ही मौत का मेहमान बन जाता है। यह तो इतिहासविद् जानते हैं कि जितनी शक्ति Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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