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[ कर्म सिद्धान्त
था। रिपु प्रतिशत्रु नामक वहाँ का शासक था। उनकी अग्रमहिषी का नाम भद्रा था । कालान्तर में उनके पुत्र रत्न की उत्पत्ति हुई जिसका नाम अचल रखा गया। कुछ काल बाद उस भद्रा महारानी के एक कन्या रत्न की उत्पत्ति हुई जिसका नाम मृगावती रखा गया। मृगावती जब यौवनावस्था में आयी तो उसका एक-एक अंग सुगठित तथा आकर्षक था। राजकुमारी विवाह योग्य हुई तो ध्यानाकर्षण की दृष्टि से माता भद्रा ने उसे पिता के पास राज दरबार में भेजा । राजा रिपु प्रतिशत्रु उस राजकुमारी को आते देखकर मोहाभिभूत हो गया। उसने विचार किया कि यह तो कोई स्वर्गलोक से देवाङ्गना आ रही है। पृथ्वी पर ऐसे स्त्रीरत्न का मिलना बड़ा कठिन है। राजा इस प्रकार का विचार कर रहा था कि वह राजकुमारी पास में आयी एवं पिताश्री को प्रणाम किया। राजा ने उसे पास में बिठाया एवं पुनः सेविका के साथ उसे अन्तःपुर में भेज दिया। राजा अपनी दुर्वासना को दबा न सका। आखिर अपनी चतुराई के बल पर उसने राज दरबारियों से स्वीकृति प्राप्त कर अपनी पुत्री से गन्धर्व विवाह कर लिया। इधर महारानी भद्रा अपने पुत्र अचल को लेकर दक्षिण दिशा में चली गयी जहाँ पर माहेश्वरी नामक नगरी बसायी । कुछ दिनों बाद पुत्र अचल पुनः पिताश्री की सेवा में आ गया।
कालान्तर में मृगावती के एक पुत्र उत्पन्न हुआ । ज्योतिषियों ने बताया कि यह बालक वासुदेव का पद धारण कर तीन खण्ड का स्वामी होगा। कर्मगति कितनी विचित्र है कि एक श्लाघनीय पुरुष की उत्पत्ति लोकापवाद निन्दनीय संयोग से हुई। बालक की पीठ पर तीन बांस का चिह्न देखकर उसे त्रिपृष्ठ नाम दिया गया। बालक अपने बड़े भाई अचल के साथ रहने लगा। योग्य वय पाकर कला-कौशल में निपुण हो गया। दोनों भाइयों में स्नेह इतना अधिक था कि एक दूसरे के बिना नहीं रह सकते थे।
उस समय में रत्नपुर में अश्वग्रीव नामक शासक शासन करता था। वह महान् योद्धा और वीर था। सोलह हजार राजा उसके अधीन थे। वह प्रतिवासुदेव था।
तत्कालीन परिस्थिति में रथनपर चक्रवाल नामक नगरी में विद्याधरराज ज्वलनवटी प्रबल पराक्रमी नरेश था, उनकी पत्नी का नाम वायुवेगा था । कालान्तर में उसके एक कन्या की उत्पत्ति हुई जिसका नाम स्वयंप्रभा रखा गया । उसका विवाह त्रिपृष्ठ वासुदेव से करने हेतु ज्वलनवटी उसे लेकर पोतनपुर चला आया तथा विवाह की तैयारी होने लगी। यह बात अश्वग्रीव को मालूम हुई तो वह अपनी सेना लेकर पोतनपुर चला आया क्योंकि स्वयंप्रभा से वह विवाह करना चाहता था । घमासान युद्ध हुमा । अश्वग्रीव मारा गया। अन्त में सभी राजाओं ने त्रिपृष्ठ वासुदेव की आज्ञा में रहना स्वीकार किया
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