________________
कर्म और पुरुषार्थ की जैन कथाएँ ]
[ ३४७ सनतकुमार सपरिवार ससैन्य मुनि की सेवा में उपस्थित हुये और प्रशासन की भूल के लिये क्षमा याचना की। तपस्वी मुनि का क्रोध शान्त हुआ और उन्होंने अपनी लब्धि के प्रयोग को समेट लिया किन्तु चक्रवर्ती की ऋद्धि सम्पदा, राजरानियों के रूप-सौन्दर्य को देखकर वे आसक्त बन गये और यह दुस्संकल्प कर लिया कि मेरे इस त्याग तपश्चर्या का फल मिले तो मुझे भी भविष्य में ऐसा ही ऐश्वर्य और काम भोगों के साधन प्राप्त हों। चित्त मुनि ने मुनि संभूति की भावभंगी को देखकर इस प्रकार के निदान करने के दुःष्परिणाम से अवगत कराया किन्तु मुनि संभूति पर इसका कोई असर नहीं हुआ।
चक्रवर्ती सनतकुमार मुनियों के दर्शन कर अपने आपको धन्य मानते हुये त्याग वैराग्य की अमिट छाप अपने हृदय में लेकर अपने महलों की ओर प्रस्थान कर गये । दोनों मुनियों ने यथासमय आयुष्य पूर्ण कर देव लोक के पद्मगुल विमान में जन्म लिया।
देवलोक की आयुष्य पूर्ण कर मुनि संभूति ने कांपिल्य नगर में चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त के रूप में जन्म लिया किन्तु उसका भाई चित्त देवायु पूर्ण कर कहाँ गया, इसको जानने के लिये ब्रह्मदत्त चिंतित हो गये । राज्य वैभव और भोगोपभोग की प्रचुर सामग्री उपलब्ध होते हुये भी उसको अपने पूर्व भव के भाई की विरह वेदना सताने लगी। आखिर उसने अपने भाई को खोजने का एक उपाय निकाल लिया। उसने एक प्राधी गाथा बनाई-"असि दासा, मिगा, हँसा, चाण्डाला अमरा जहा" और देश-देशान्तरों में यह उद्घोष करा दिया कि जो कोई इस अर्ध गाथा को पूर्ण कर देगा उसको चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त अपना आधा राज्य देगा।
चित्त मुनि देवायु पूर्ण कर पुरमिताल नगर में धनपति नगर श्रेष्ठि के घर में पुत्र रूप में उत्पन्न हुए। अपने पूर्व भव की त्याग-तपश्चर्या के प्रभाव से अतुल ऋद्धि सम्पदा और भोगोपभोग की प्रचुर सामग्री के स्वामी बने। एक दिन किसी महात्मा के मुखारविन्द से एक गम्भीर गाथा सुनकर उसके अर्थ का चिन्तन करते-करते उनको जाति स्मरण ज्ञान हो गया। पूर्व त्याग-वैराग्य के संस्कार जागृत हुये और भोगविलाप की सामग्री को सर्प कांचलीवत छोड़कर त्याग-मार्ग को अंगीकार करते हुये विचरण करने लगे। साधना करते हुये उनको अवधि ज्ञान प्रकट हो गया। ग्रामानुग्राम विचरते हुये वे कांपिल्य नगर के बाहर उद्यान में बिराजे और माली को पूर्वोक्त अर्धगाथा उच्चारण करते हुये सुना । चित्त मनि अवधि ज्ञान के बल से अर्ध गाथा का प्रयोजन समझ गये और "इमाणी छट्टियाँ जायी अन्नमन्नख जा विणा" यह कहकर अर्धगाथा को पूर्ण कर दिया।
उद्यान का माली हर्षित होते हुये राज्य सभा में गया और उस अर्धगाथा
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org