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कर्म और पुरुषार्थ की जैन कथाएँ ]
[ ३३५ छिपकली खा ही गयी। राजा का प्रयत्न कर्म-फल के आगे व्यर्थ गया। उसने सोचा कि निपुण वैद्य रोगी को रोग से रक्षा तो कर सकते हैं किन्तु पूर्वजन्मकृत कर्मों से जीव की रक्षा वे नहीं कर सकते । यथा :
वेज्जाकरेंति किरियं ओसह-जीएहिमंत-बल-जुत्ता । णेय करेंति बसाया रण कयं जं पुग्वजम्मम्मि । कुव० १४०-२५
प्राकृत कथाओं के कोशग्रन्थों में कर्मफल सम्बन्धी अनेक कथाएँ प्राप्त हैं। 'आख्यानमणि कोश' में बारह कथाएँ इस प्रकार की हैं। कर्म अथवा भाग्य के सामर्थ्य के संबन्ध में अनेक सुभाषित इस ग्रन्थ में प्रयुक्त हुए हैं। ऋषिदत्ता आख्यान के प्रसंग में कहा गया है कि कर्मों के अनुसार ही व्यक्ति सुख-दुःख पाता है । अतः किए हुए कर्मों (के परिणाम) का नाश नहीं होता। यथा :
जं जेण पावियव्वं सुहं व दुक्खं व कम्म निम्मवियं । तं सो तहेव पावइ कयस्स नासो जनो नत्थि ॥ पृ० २५०, गा० १५१
प्राकृत-कथा-संग्रह में कर्म की प्रधानता वाली कुछ कथाएँ हैं । समुद्रयात्रा के दौरान जब जहाज भग्न हो जाता है तब नायक सोचता है कि किसी को कभी भी दोष न देना चाहिए। सुख और दुःख पूर्वाजित कर्मों का ही फल होता है । इसी तरह प्राकृत कथाओं में परीषह-जय की अनेक कथाएँ उपलब्ध हैं । वहाँ भी तपश्चरण में होने वाले दुःख को कर्मों का फल मानकर उन्हें समतापूर्वक सहन किया जाता है। अपभ्रश के कथाग्रंथों एवं महाकोसु में इस प्रकार की कई कथाएँ हैं । सुकुमाल स्वामी की कथा पूर्व जन्मों के कर्म विपाक को स्पष्ट करने के लिए ही कही गई है । होनहार कितना बलवान है, यह इस कथा से स्पष्ट हो जाता है।
कर्म सिद्धांत सम्बन्धी इन प्राकृत कथाओं के वर्णनों पर यदि पूर्णतः विश्वास किया गया होता और भवितव्यता को ही सब कुछ मान लिया गया होता तो लौकिक और पारलौकिक दोनों तरह के कोई प्रयत्न व पुरुषार्थ जैन धर्म के अनुयायियों द्वारा नहीं किए जाते। इस दृष्टि से यह समाज सबसे अधिक निष्क्रिय, दरिद्र और भाग्यवादी होता। किन्तु इतिहास साक्षी है कि ऐसा नहीं हुआ। अन्य विधाओं के जैन साहित्य को छोड़ भी दें तो यही प्राकृत कथाएँ लौकिक और पारमार्थिक पुरुषार्थों का इतना वर्णन करती हैं कि विश्वास नहीं होता उनमें कभी भाग्यवाद या कर्मवाद का विवेचन हुआ होगा। कर्म और पुरुषार्थ के इस अन्तर्द्वन्द्व को स्पष्ट करने के लिए प्राकृत कथाओं में प्राप्त कुछ पुरुषार्थ सम्बन्धी संदर्भ यहाँ प्रस्तुत हैं।
'ज्ञाताधर्मकथा' में उदकज्ञाता अध्ययन में सुबुद्धि मंत्री की कथा है । इसमें उसने जितशत्रु राजा को एक खाई के दुर्गन्धयुक्त अपेय पानी को शुद्ध एवं पेय
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