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कर्म और पुरुषार्थ की जैन कथाएँ
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जैन आगम साहित्य में प्रतिपादित कर्म और पुरुषार्थ सम्बन्धी चिन्तन का प्रभाव प्राकृत कथाओं में भी देखने को मिलता है । वैसे तो प्राय: प्रत्येक प्राकृत कथा में पूर्वजन्म, कर्मों का फल तथा मुक्ति प्राप्ति के लिए संयम, वैराग्य प्रादि पुरुषार्थों का संकेत मिलता है । किन्तु कुछ कथाएँ ऐसी भी हैं जो कर्मसिद्धान्त का ही प्रतिपादन करती हैं, तो कुछ पुरुषार्थ का । भारतीय संस्कृति में चार पुरुषार्थों का विवेचन है- धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष । वस्तुतः प्राकृत कथाओं में इनमें से दो को ही पुरुषार्थ माना गया है काम और मोक्ष को । शेष दो पुरुषार्थ इनकी प्राप्ति में सहायक हैं । धर्म पुरुषार्थ से मोक्ष सधता है तो अर्थ से काम पुरुषार्थ अर्थात् लौकिक समृद्धि व सुख आदि । प्राकृत कथाओं में इन लौकिक और पारलौकिक दोनों पुरुषार्थों का वर्णन है, किन्तु उनका प्रभाव समाज पर भिन्न-भिन्न पड़ा है ।
प्राकृत कथाओं में कर्म - सिद्धांत को प्रतिपादित करने वाली कथाएँ 'ज्ञाताधर्म कथा' में उपलब्ध हैं । मणिकुमार सेठ की कथा में कहा गया है कि पहले उसने एक सुन्दर वापी का निर्माण कराया । परोपकार एवं दानशीलता के अनेक कार्य किए। किन्तु एक बार जब उसके शरीर में सोलह प्रकार की व्याधियाँ हो गयीं तो देश के प्रख्यात् वैद्यों की चिकित्सा द्वारा भी मणिकुमार स्वस्थ नहीं हो सका । क्योंकि उसके असाता कर्मों का उदय था । इसलिए उसे रोगों का दुःख भोगना ही था । इसी ग्रंथ में काली आर्या की एक कथा है, जिसमें अशुभ कर्मों के उदय के कारण उसकी दुष्प्रवृत्ति में बुद्धि लग जाती है और वह साध्वी के आचरण में शिथिल हो जाती है ।
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डॉ० प्रेम सुमन जैन
आगम ग्रंथों में विपाक सूत्र कर्म सिद्धांत के प्रतिपादन का प्रतिनिधि ग्रंथ है । इसमें २० कथाएँ हैं । प्रारम्भ की दस कथाएँ अशुभ कर्मों के विपाक को एवं अन्तिम दस कथाएँ शुभ कर्मों के फल को प्रकट करती हैं । मियापुत्र की कथा क्रूरतापूर्वक आचरण करने के फल को व्यक्त करती है तो सोरियदत्त की कथा मांसभक्षण के परिणाम को । इसी तरह की अन्य कथाएँ विभिन्न कर्मों के परिपाक को स्पष्ट करती हैं । इन कथाओं का स्पष्ट उद्देश्य प्रतीत होता है कि शुभ कर्मों को छोड़कर शुभ कर्मों की ओर प्रवृत्त हों ।
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