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________________ जैन कर्म सिद्धान्त और विज्ञान : पारस्परिक अभिगम ] [ ३२६ निर्माण और विध्वंस तेरे स्वयं के हाथों में है अर्थात् अपने सत्कार्यों द्वारा तू स्वयं बना भी सकता है और असत् कार्यों द्वारा अपने को बिगाड़ भी सकता है । कहा है कम्मुणा बंभरणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तियो । वइसो कम्मुणा होइ, सुद्दो हवइ कम्मुणा || अर्थात् कर्म ही मनुष्य को ब्राह्मणत्व प्रदान करते हैं, कर्म ही मनुष्य को क्षत्रिय बनाते हैं, कर्मों से ही मनुष्य वैश्य है और कर्मों से ही शूद्र । सभी तीर्थंकर भगवान्, महापुरुष श्री राम, श्री कृष्ण, महात्मा गान्धी आदि ने कर्मयोग अर्थात् पुरुषार्थ के माध्यम से ही अपने-अपने लक्ष्यों को प्राप्त किया है । सवर जाणे य विराणे, पच्चक्खाणे य सजंमे । अणासवे तवे चेव बोदाणे प्रकिरि सिद्धि || उक्त गाथा आध्यात्मिक साधकों के लिए तो रची ही गई है पर वैज्ञानिक भी इसी गाथा के भाव अनुसार चलकर ही वैज्ञानिक नियम व सिद्धान्तों को सिद्ध कर पाते हैं । वैज्ञानिक सर्व प्रथम ज्ञान को अनन्त मानता है, उसको प्राप्त करने के लिए उपलब्ध साहित्य व ज्ञानगोष्ठी इत्यादि का सहारा लेता है और उस ज्ञान को अनेकान्तवाद अर्थात् सापेक्षवाद की कसौटी पर कसता है । विज्ञान के किसी नियम या सिद्धान्त के प्रतिपादन के लिए वैज्ञानिक को अपने मन, वचन काय का पूर्ण रूप से संयम, त्याग, तपस्या अर्थात् पुरुषार्थ को अपनाना पड़ता है । भगवान् महावीर का कथन है कि सत्य को जब तक अनेक दृष्टिकोणों से नहीं देखेगा तब तक उसका साम्ययोगी बनना सम्भव नहीं है । इस प्रकार सम्यक्ज्ञान को प्राप्त कर संयम के द्वारा नवीन कर्मों के आस्रव को रोकता हुआ तपस्या द्वारा अपने पूर्व संचित कर्मों का क्षय श्रर्थात् निर्जरा करता हुआ मन, वचन, काय रूप योगों का निरोध करके सार शब्दों में सम्यक्चारित्र को अपना कर सिद्ध अवस्था को प्राप्त होता है । इन सब के लिए कर्मयोग प्रर्थात् पुरुषार्थ अत्यन्त आवश्यक है । Jain Educationa International 'भव कोडि संचियं कम्मं तवसा निज्जरिज्जइ' अर्थात् तपस्या से करोड़ों भवों के संचित् कर्मों की निर्जरा कर दी जाती है । श्रमण भगवान महावीर ने अपने पूर्व संचित कर्मों को जो कि पहले हुए २३ तीर्थंकरों के सारे कर्मों को मिलाकर के बराबर थे, अपनी उग्र तपस्या द्वारा क्षय कर दिया । सब तीर्थंकरों की अपेक्षा से महावीर भगवान के तप को उग्र तप बताया गया है । यह 'आवश्यक नियुक्ति' की गाथा "उगां च तवो कम्मं विशेषतो वद्धमाणस" से स्पष्ट है । वैज्ञानिक ढंग से यह सिद्ध करने का प्रयास किया जा सकता है कि तभी तो अन्य For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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