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________________ कर्म-सिद्धान्त : वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में ] [ ३२५ ये पुद्गल परमाणु आत्म-प्रदेशों में एक क्षेत्रावगाही सम्बन्ध स्थापित ही करते हैं न कि वे दोनों एक-दूसरे में परिवर्तित हो जाते हैं । ऐसे सम्बन्ध के बावजूद भी जीव, जीव रहता है और पुद्गल के परमाणु, परमाणु रूप में ही रहते हैं । दोनों अपने भौतिक गुणों (Fundamental properties) को एक समय के लिए भी नहीं छोड़ते । यह कर्मबन्ध है। यदि आत्मा के प्रदेशों में परमाणुओं की कम्पन-प्रक्रिया ढीली पड़ने लगे, जो कि योगों की सरलता से ही सम्भव हो सकती है, तो बाहर से उसी अनुपात में कार्मण परमाणु कम आएँगे अर्थात् आकर्षण क्रिया ही न होगी, अर्थात् संवर होना शुरू होगा। जब नई तरंगों के माध्यम से पुद्गल परमाणुओं का आना बन्द हो जाता है तो पहले से बैठे हुए कार्मण परमाणु अवमंदित दोलन . (Damped oscillation) करके निकलते रहेंगे । अर्थात् प्रतिक्षण निर्जरा होगी और एक समय ऐसा आयेगा जब प्राप्तक दौलित्र (oscillator) कार्य करना बन्द कर देगा। निर्विकल्पता की उस स्थिति में योगों की प्रवृत्ति एक दम । बन्द हो जायगी और संचित कर्म शेष न रहने पर फिर प्रदेशों की कम्पन-क्रिया का प्रश्न ही नहीं उठता, अर्थात् कर्मों की निर्जरा हो जायेगी। सम्पूर्ण कर्मों की निजीर्णावस्था ही मोक्ष कहलाती है। इस प्रकार तरंग सिद्धान्त (wave theory) के विद्युतीय साम्यावस्था (Electrical resonance) की घटना से प्रास्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष भलीभांति समझा जा सकता है । टैलीपैथी विचार करते समय मस्तिष्क में विद्युत उत्पन्न होती है । इस विचारशक्ति की परीक्षा करने के लिए पेरिस के प्रसिद्ध डॉ० वेरडुक ने एक यन्त्र तैयार किया । एक कांच के पात्र में सुई के सदृश एक महीन तार लगाया गया और मन को एकाग्र करके थोड़ी देर तक विचार-शक्ति का प्रभाव उस पर डालने से सुई हिलने लगती है । यदि इच्छा शक्ति निर्बल हो तो उसमें कुछ भी हलचल नहीं होती। विचार शक्ति की गति बिजली से भी तीव्र है-लगभग तीन लाख किलोमीटर प्रति सैकण्ड । जिस प्रकार यन्त्रों द्वारा विद्युत तरंगों का प्रसारण और ग्रहण होता है और रेडियो, टेलीफोन, टेलिप्रिन्टर, टेलिविजन आदि विद्युत. को मनुष्य के लिए उपयोगी व लाभप्रद साधन बनाते हैं, इसी प्रकार विचारविद्युत की लहरों का भी एक विशेष प्रक्रिया से प्रसारण और ग्रहण होता है । इस प्रक्रिया को टैलीपैथी कहा जाता है। टैलीपैथी के प्रयोग से हजारों मील दूरस्थ व्यक्ति भी विचारों का आदान-प्रदान व प्रेषण-ग्रहण कर सकते हैं। भविष्य में यही टैलीपैथी की प्रक्रिया सरल और सुगम हो जनसाधारण के लिए . भी महान् लाभदायक सिद्ध होगी, ऐसी पूरी सम्भावना है।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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