SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 323
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३१८ ] [ कर्म सिद्धान्त का कारण कर्म है । जीव कर्मों के प्रावरण को पुरुषार्थ द्वारा हटाता है । सिद्ध जीव की विकसित दशा है । वैज्ञानिक क्लाइन की ब्रह्माण्डिकी गोचर ब्रह्माण्ड को एक परिमित व्यवस्था - परानीहारिका (मैटागैलेक्सी ) का सदस्य मानती है । इस परानीहारिका में पहले द्रव्य और प्रतिद्रव्य दोनों उपस्थित थे । प्रतिद्रव्य को संक्षेप में यों समझिये कि परमाणु के जो दो सौ से ऊपर ज्ञात अवयव हैं उनमें से कुछ के 'विरोधी' अवयव प्रयोगशाला में पहचान लिए गए हैं, तो यदि समस्त अवयवों के विरोधी श्रवयव हों और वे आपस में मिल भी सकें तो 'प्रतिपरमाणु' बन सकता है और फिर भागे प्रतिद्रव्य का भी अस्तित्व सम्भव है । यदि प्रतिद्रव्य है तो वह द्रव्य के साथ नहीं रह सकता - परस्पर संयोग होते ही वे एक-दूसरे को समाप्त कर देंगे और इस प्रक्रिया में अकल्पनीय ऊर्जा की सृष्टि होगी - परन्तु प्रतिद्रव्य अकेले बना रह सकता है, जैसे कि द्रव्य अकेले बना रह सकता है । प्रतिद्रव्य की बनी हुई एक दुनिया भी हो सकती है । उस दुनिया में क्या हो सकता है, इस चर्चा के अपने-अलग मजे हैं और 'प्रतिविश्व' पर वैज्ञानिकों का कोई एकाधिकार भी नहीं है । उदाहरण के लिये कृष्ण-लीला की उदात्तता सिद्ध करने के लिए कुछ वैष्णव दार्शनिकों ने 'गोलोक' की कल्पना प्रतिविश्व के रूप में ही की है, जिसका विशेष लाभ यह है कि परकीया प्रेम जो इस लोक में अधम कृत्य है, उस लोक में उत्तम कृत्य हो जाता है । भारतीय दर्शन में सत्यलोक, ब्रह्मलोक, तपलोक, महर्लोक, भुवर्लोक, पितृलोक, देवलोक, चन्द्रलोक, सूर्यलोक आदि की कल्पना प्रतिविश्व के रूप में ही है । इसी प्रकार अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड स्वरूप इस विश्व में एक-एक ब्रह्माण्ड में अनन्तानन्त जीव हैं । ब्रह्माण्ड की अनेकता और अनन्तता अब वैज्ञानिक भी स्वीकृत कर चुके हैं। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डाक्टर हेज हाबेर ने दूसरी दुनिया में जीवन के बारे में एक अनोखा सिद्धान्त पेश किया है, जिसके अनुसार जरूरी नहीं कि जहां भी विकसित सभ्यता अथवा विकासशील जीवन हो, वहां पानी और आक्सीजन हो ही । शुक्रग्रह जैसे गैसीय वातावरण युक्त ग्रहों के आकाश में भी जीवन उसी तरह पनप सकता है, जैसे पृथ्वी के ऊपर महासागरों में पनपा । पृथ्वी के जीवधारियों के शरीर में भले ही कार्बनयौगिकों का बाहुल्य है, मगर अन्य ग्रहों का जीवन बिलकुल भिन्न तत्त्वों से बना हो सकता है । जिन ग्रहों पर सरसरी तौर से जीवन नहीं दिखाई देता, वहां भी 'भूमिगत' जीवन हो सकता है । हो सकता है आए दिन हम जो उड़नतश्तरियाँ वगैरह पृथ्वी पर देखते हैं, वे हमारे 'पड़ोस' से आई हों और पृथ्वी से आक्सीजन, जल तथा अन्य आवश्यक पदार्थ एकत्र करके वापिस चली जाती हों । इस सिलसिले में वैज्ञानिक पृथ्वी और शुक्र के बीच, पृथ्वी और Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy