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________________ कर्म का सामाजिक संदर्भ ] [ २८७ कर्म का मूल क्षण हिंसा है। अहिंसा से बढ़कर दूसरी कोई साधना नहीं है। इसी अहिंसा के व्यावहारिक जीवन में पालन करने के सम्बन्ध में भगवान् महावीर के समय में भी जिज्ञासायें उठी थीं। जल में जीव हैं, स्थल पर जीव हैं, आकाश में भी सर्वत्र जीव हैं। जीवों से ठसाठस भरे इस लोक में भिक्षु अहिंसक कैसे रह सकता है ? हमें कर्म करने ही पड़ेंगे। मार्ग में चलते हुए अनजाने यदि कोई जीव आहत हो जावे तो क्या वह हिंसा हो जावेगी ? यदि वह हिंसा है तो क्या हम अकर्मण्य हो जावें? क्रिया करनी बन्द करदें ? ऐसी स्थिति में समाज का कार्य किस प्रकार सम्पन्न हो सकता है ? महावीर ने इन जिज्ञासाओं का समाधान किया। उन्होंने अहिंसा के प्रतिपादन द्वारा व्यक्ति के चित्त को बहुत गहरे से प्रभावित किया। उन्होंने लोक के जीव मात्र के उद्धार का वैज्ञानिक मार्ग खोज निकाला। उन्होंने संसार में प्राणियों के प्रति आत्मतुल्यता-भाव की जागृति का उपदेश दिया, शत्रु एवं मित्र सभी प्राणियों पर समभाव की दृष्टि रखने का शंखनाद किया। यहाँ आकर आध्यात्मिक दृष्टि एवं सामाजिक दृष्टि परस्पर पूरक हो जाती हैं । आत्मा का साक्षात्कार करना है। आप क्या हैं ? "मैं"। इस "मैं" को जिस चेतना शक्ति के द्वारा जानते हैं, वही आत्मा है। बाकी अन्य सभी "पर" हैं । अपने को अन्यों से निकाल लो-शुद्ध आत्मा के स्वरूप में स्थित हो जाओ । आत्म साक्षात्कार का दूसरा रास्ता भी है। अपने को अन्य सभी में बाँट दो । समस्त जीवों पर मैत्रीभाव रखो । सम्पूर्ण विश्व को समभाव से देखने पर साधक के लिए न कोई प्रिय रह जाता है न कोई अप्रिय । अपने को अन्यों में बाँट देने पर आत्म तुल्यता की प्रतीति होती है । जो साधक आत्मा को प्रात्मा से जान लेता है, वह एक को जानकर सबको जान लेता है । एक को जानना ही सबको जानना है तथा सबको समभाव से जानना ही अपने को जानना है । दोनों ही स्थितियाँ केवल नामान्तर मात्र हैं। दोनों में ही राग-द्वेष के प्रसंगों में सम की स्थिति है, राग एवं द्वेष से अतीत होने की प्रक्रिया है । राग-द्वेष हीनता धार्मिक बनने की प्रथम सीढ़ी है। इसी कारण भगवान् महावीर ने कहा कि भव्यात्माओं को चाहिए कि वे समस्त संसार को समभाव से देखें। किसी को प्रिय एवं किसी को अप्रिय न बनावें।। शत्रु अथवा मित्र सभी प्राणियों पर समभाव की दृष्टि रखना ही अहिंसा है। समभाव एवं आत्मतुल्यता की दृष्टि का विकास होने पर व्यक्ति अपने आप अहिंसक हो जाता है । इसका कारण यह है कि प्राणी मात्र जीवित रहने की इच्छा रखते हैं । सबको अपना जीवन प्रिय है। सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता । सभी प्राणियों को दुःख अप्रिय है। इस कारण किसी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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