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कर्मवाद में आधुनिक चिंतन ]
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चरम स्थिति या निर्वाण है । लेकिन ये विचार, किसी पूर्व कल्पना ( Prothesis ) को मूल मानकर चलते हैं, जिसके बारे में सभी दार्शनिकों का विचार है कि वह ईश्वर या सर्वज्ञ के द्वारा दृष्ट सत्य है, यह सत्य हो सकता है, परन्तु इस सत्य को पाने की प्रक्रिया का विचार करने वालों के लिए वह, एक पूर्वकल्पित सत्य ही होगा, क्योंकि वे यह दावा नहीं करते कि उन्होंने उक्त सत्य का साक्षात्कार कर लिया है ।
जैन दर्शन के विचारक भी यह मानकर चलते हैं कि सृष्टि और उसमें जड़ चेतन का मिश्रण अनादि निधन है, यानी वह प्रारम्भ हीन सतत प्रवाह है । जीवन की सारी विषमताएँ और समस्याएँ - इसी मिश्रण की प्रतिक्रियाएँ हैं, वे वैभाविक परिणतियाँ हैं, राग चेतना की निष्पत्तियाँ हैं, जो जीव के साथ इतनी घुल-मिल गई हैं कि 'जीव' इन्हीं के माध्यम से अपने को पहचानता है । उसकी यह पहचान जितनी गाढ़ी होती है, उसे सुख-दुःख की अनुभूति उतनी हो तीव्रतर होती है । रागात्मक परमाणु चेतना के प्रत्येक गुरण पर आवरण डाल देते हैं, और वह दुःखी हो उठती है, अनुकूल स्थिति में सुखी भी होती है । इस प्रकार व्यक्ति के सुख-दुःख का कारण, उसी में है न कि समाज या बाहरी परिस्थितियों में | अपने सुख-दुःख का कर्ता और भोक्ता व्यक्ति स्वयं है, जिन कर्मों से यह होता है, उनका कर्ता वह स्वयं है । इस प्रकार ऊपर से देखने पर कर्मवाद - व्यक्ति को करने की स्वतंत्रता देता है और उससे मुक्त होने का अधिकार भी । परन्तु मूलतः यह प्रक्रिया अत्यन्त जटिल है, और एक बार जीव जब कर्म के जंजाल में फंस जाता है (या फंसा दिया गया है) तो उससे छूटना आसान नहीं है । फिर भी कर्मवाद में व्यक्ति को मुक्त होने की स्वतंत्रता है । लेकिन यह सारी विचारधारा, समाज निरपेक्ष विचारधारा है, जो मनुष्य को लौकिक दृष्टि से उदासीन और श्रात्म केन्द्रित बना देती है, उस पर यह बहुत बड़ा आक्षेप है । यह प्रवृत्ति मनुष्य को अकर्मण्य और सामाजिक संघर्ष से निरपेक्ष बना देती है, जबकि आधुनिक चितन इस विचारधारा को समाज के लिए अत्यंत खतरनाक मानता है ।
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वास्तव में देखा जाए तो दूसरे भारतीय दर्शनों की तरह जैन कर्मवाद भी इसी प्रवृत्ति का पोषक है । यानी उसके अनुसार व्यक्ति के नैतिक विकास से समाज और राष्ट्र का विकास स्वतः हो जाएगा। यह मान्यता, इतिहास के उतार-चढ़ाव में कई बार झुठलाई जा चुकी है । इससे बड़ी विडम्बना और क्या हो सकती है कि आत्म स्वातंत्र्य की अलख जगाने वाला देश सहस्राब्दियों तक भौतिक गुलामी की बेड़ियों में जकड़ा रहा, जिसकी दूसरी मिसाल नहीं मिलती ।
आधुनिक चिंतन की परिभाषा को लेकर चाहे जो मतभेद हों, परन्तु
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