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[ कर्म सिद्धान्त कर्तव्य के ठीक-ठीक निभाने के लिए ही ईश्वर-उपासना की आवश्यकता है और अगर थोड़ा आगे सोचा जाए तो कर्तव्य के पालन को तो दूर, कर्त्तव्य के ठीक-ठीक ज्ञान के लिए भी परमात्मा का भजन करना प्रथम और अनिवार्य शर्त है । कर्तव्य पालन करने के लिए तीन बातें आवश्यक हैं :
१. सही कर्तव्य का ज्ञान । २. कर्त्तव्य पालन करने या निभाने के सही रास्ते का ज्ञान । ३. कर्तव्य पालन करने के लिए शक्ति ।
इन बातों का जीवन में आना ईश्वर की उपासना से ही संभव है। सच तो यह है कि कर्तव्य पालन को हम जितना आसान समझ बैठे हैं उतना बिना ईश्वर भजन के-आसान नहीं । कर्त्तव्य की बलिवेदी पर बलिदान होना बच्चों का खिलवाड़ नहीं, मात्र पुस्तकीय ज्ञान, पांडित्य व विद्वता से संभव नहीं।
ईश्वर के ध्यान से जब मनुष्य के विचार शांत होने लगते हैं, तो आत्मनिरीक्षण द्वारा मनुष्य को अपनी कमियाँ दिखने लगती हैं। ध्यान से छोटी-सेछोटी कमी भी उभर कर सामने आ जाती है और मनुष्य उसे दूर करने की सोचता है । ध्यान करते-करते मन में मलिन संस्कार दग्ध होते रहते हैं, मन साफ होने लगता है, विचार पवित्र होते हैं, बुद्धि तीव्र होती है, विवेक प्रबल होने लगता है और आत्मा का प्रकाश मन में फैलने लगता है। ऐसे धर्म के प्रकाश में ही मनुष्य को सही कर्तव्य का ज्ञान होता है । सूर्य के प्रकाश में किये गए फैसले गलत हो सकते हैं, परन्तु ईश्वर के प्रकाश में अंधे भी सही निर्णय करते हैं।
अपने कर्तव्य का बोध या ज्ञान हो जाने के पश्चात् उसे निभाने के सही रास्ते का ज्ञान भी होना चाहिए। यदि कर्त्तव्य पालन करने का रास्ता ठीक नहीं है अथवा अन्यायपूर्ण है तो निश्चय ही कर्तव्य-पालन से जो शांति व आनन्द हमें मिलना चाहिए, वह नहीं मिल सकेगा। .
हम संसार में अक्सर देखते हैं कि कर्त्तव्य का बोध होने के बावजद व सही रास्ता मालूम होने के बावजूद कई मनुष्य कर्तव्य करने से चूक जाते हैं। उनमें हिम्मत नहीं होती। वे परिस्थितियों से या स्वार्थवश घबरा जाते हैं। अतः कर्तव्य परायणता की आवश्यकता होती है, वह भी ईश्वर के गहरे ध्यान से ही प्राप्त होती है। ईश्वर का ध्यान करते-करते जब मनुष्य के हृदय में भगवान् बस जाता है तो उसमें स्वत: आत्म-शक्ति का, अदम्य साहस का, पूर्ण निर्भयता का भी विकास होता है। गाँधीजी ने अपने रोम-रोम में राम को
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