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________________ २७६ ] [ कर्म सिद्धान्त नहीं हैं । यदि अपवाद की बात मान ली जाय तो कभी ऐसा भी हो सकता है कि क्षय के कीटाणु किसी दवा से न मरें । हो सकता है कि क्षय के कीटाणु भी प्रह्लाद की तरह भगवान् के भक्त हों और कोई दवा काम न करे । यदि धर्म है तो नियम है और अगर नियम है तो नियन्ता में बाधा पड़ेगी। इसलिये महावीर नियम के पक्ष में नियन्ता को विदा कर देते हैं। वे कहते हैं कि नियम काफी है और नियम अखण्ड है । प्रार्थना, पूजा उनसे हमारी रक्षा नहीं कर सकती । नियम से बचने का एक ही उपाय है कि नियम को समझ लो । यह जान लो कि आग में हाथ डालने से हाथ जलता है, इसलिये हाथ मत डालो। महावीर न तो चार्वाक को मानते हैं और न नियन्ता के मानने वालों को। चार्वाक नियम को तोड़कर अव्यवस्था पैदा करता है और नियन्ता के मानने वाले नियम के ऊपर किसी नियन्ता को स्थापित कर अव्यवस्था पैदा करते हैं । महावीर पूछते हैं कि यह भगवान् नियम के अन्तर्गत चलता है या नहीं ? अगर नियम के अन्तर्गत चलता है तो उसकी जरूरत क्या है ? यानी अगर भगवान् आग में हाथ डालेगा तो उसका हाथ जलेगा कि नहीं ? अगर जलता है तो वह भी वैसा ही है जैसा हम हैं, अगर नहीं जलता है तो ऐसा भगवान् खतरनाक है । यदि हम उससे दोस्ती करेंगे तो आग में हाथ भी डालेंगे और शीतल होने का उपाय भी कर लेंगे। इसलिये महावीर कहते हैं कि नियम को न मानना अवैज्ञानिक है और नियन्ता की स्वीकृति नियम में बाधा डालती है । विज्ञान कहता है कि किसी भगवान् से हमें कुछ लेना-देना नहीं, हम तो प्रकृति के नियम खोजते हैं । ठीक यही बात ढाई हजार साल पहले महावीर ने चेतना के जगत् में कही थी। उनके अनुसार नियम शाश्वत, अखण्ड और अपरिवर्तननीय है । उस अपरिवर्तनीय नियम पर ही धर्म का विज्ञान खड़ा है। यह असम्भव ही है कि एक कर्म अभी हो और उसका फल अगले जन्म में मिले । फल इसी कर्म की शृंखला का हिस्सा होगा जो इसी कर्म के साथ मिलना शुरू हो जायगा । हम जो भी करते हैं उसे भोग लेते हैं। यदि मेरी अशान्ति पिछले जन्म के कर्मों का फल है तो मैं इस अशान्ति को दूर नहीं कर सकता। इस प्रकार मैं एक दम परतन्त्र हो जाता हूँ और गुरुत्रों के पास जाकर शान्ति के उपाय खोजता हूँ। मगर सही बात यह है कि जो मैं अभी कर रहा हूँ, उसे अनक्रिया करने की सामर्थ्य भी मुझ में है। अगर मैं प्राग में हाथ डाल रहा है और मेरा हाथ जल रहा है, और अगर मेरी मान्यता यह है कि पिछले जन्म के किसी पाप का फल भोग रहा हूँ तो मैं हाथ डाले चला जाऊँगा, क्योंकि पिछले जन्म के कर्म को मैं बदल कैसे सकता हूँ ? जिन गुरुओं की यह मान्यता है कि पिछले जन्म के किसी कर्म के कारण मेरा हाथ जल रहा है, वे यह नहीं कहेंगे कि हाथ बाहर खींचो तो जलना बन्द हो जाय। इसका मतलब यह हआ कि हाथ अभी डाला जा रहा है और अभी डाला गया हाथ बाहर खींचा जा सकता है, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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