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[ कर्म सिद्धान्त भी तुम मारते नहीं। मां बच्चे को पीटती है, इसलिये तुम तो उसे पीटकर देखो। तुम्हारी मार बच्चा नहीं सहेगा। माँ मारती है फिर भी वह उसके अांचल में मुंह छिपाता है, क्योंकि माँ के बाह्य कर्म में चित्त शुद्धि का मेल है। उसका यह मारना-पीटना निष्काम भाव से है। उस कर्म में उसका स्वार्थ नहीं है। विकर्म के कारण, मन की शुद्धि के कारण कर्म का कर्मत्व उड़ जाता है। राम की वह दृष्टि, आन्तरिक विकर्म के कारण महज प्रेम-सुधा सागर हो गई थी परन्तु राम को उस कर्म का कोई श्रम नहीं हुआ था। चित्त शुद्धि से क्रिया-कर्म निर्लेप रहता है। उसका पाप-पुण्य कुछ बाकी नहीं रहता। नहीं तो कर्म का कितना बोझ, कितना जोर हमारी बुद्धि व हृदय पर पड़ता है। यदि यह खबर आज दो बजे उड़ी कि कल ही सारे राजनैतिक कैदी छूट जाने वाले हैं तो फिर देखो, कैसी भीड़ चारों ओर हो जाती है। चारों ओर हलचल व गड़बड़ मच जाती है। हम कर्म के अच्छे-बुरे होने की वजह से मानो व्यग्र रहते हैं। कर्म हमको चारों ओर से घेर लेता है, मानो कर्म ने हमारी गर्दन धर दबाई है। जिस तरह समुद्र का प्रवाह जोर से जमीन में फंसकर खाड़ियाँ बना देता है उसी तरह कर्म का यह जंजाल चित्त में घुसकर क्षोभ पैदा करता है। सुख-दुःख के द्वन्द्व निर्माण होते हैं। सारी शान्ति नष्ट हो जाती है। कर्म हुआ और होकर चला भी गया। परन्तु उसका वेग बाकी बच ही रहता है। कर्म चित्त पर हावी हो जाता है । फिर उसकी नींद हराम हो जाती है।
परन्तु ऐसे इस कर्म में यदि विकर्म को मिला दिया तो फिर आप चाहे जितने कर्म करें तो भी उसका श्रम या बोझ नहीं मालूम होता। मन ध्रुव की तरह शान्त, स्थिर व तेजोमय बना रहता है। कर्म में विकर्म डाल देने से वह अकर्म हो जाता है। मानो कर्म को करके फिर उसे पोंछ दिया हो।
. निज विवेक का प्रकाश मानव का अपना विधान है। उस विधान के आधीन बुद्धि, मन, इन्द्रिय, शरीर आदि को कर्म में लगाना है अथवा यों कहो कि कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति को शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि प्रादि का उपयोग वर्तमान कर्तव्य-कर्म में ही विवेक के प्रकाश में करना है। निज विवेक का प्रकाश अविवेक का नाशक है । अविवेक के नष्ट होते ही अकर्तव्य शेष नहीं रहता, जिसके न रहने पर कर्तव्य पालन में स्वाभाविकता प्रा जाती है । इस दृष्टि से विवेकयुक्त मानव ही कर्तव्यनिष्ठ हो सकते हैं । अतः विवेक विरोधी कर्म का मानव-जीवन में कोई स्थान ही नहीं है।
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