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कर्मविपाक और प्रात्म-स्वातंत्र्य
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लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक
कर्म चाहे भला हो या बुरा, परन्तु उसका फल भोगने के लिये मनुष्य को एक न एक जन्म लेकर हमेशा तैयार रहना चाहिये । कर्म अनादि है, और उसके अखण्ड व्यापार में परमेश्वर भी हस्तक्षेप नहीं करता । सब कर्मों को छोड़ देना संभव नहीं है, और मीमांसकों के कथनानुसार कुछ कर्मों को करने से और कुछ कर्मों को छोड़ देने से भी कर्मबन्धन से छुटकारा नहीं मिल सकता-इत्यादि बातों के सिद्ध हो जाने पर यह पहला प्रश्न फिर भी उत्पन्न होता है कि कर्मात्मक नाम रूप के विनाशी चक्र से छूट जाने एवं उसके मूल में रहने वाले अमृत तथा अविनाशी तत्त्व में मिल जाने की मनुष्य को जो स्वाभाविक इच्छा होती है, उसकी तृप्ति करने का कौनसा मार्ग है ? वेद और स्मृति ग्रन्थों में यज्ञयाग आदि पारलौकिक कल्याण के अनेक साधनों का वर्णन है, परन्तु मोक्षशास्त्र की दृष्टि से ये सब कनिष्ठ श्रेणी के हैं । क्योंकि यज्ञयाग आदि पुण्यकर्मों के द्वारा स्वर्ग. प्राप्ति हो जाती है, परन्तु जब उन पुण्य-कर्मों के फलों का अन्त हो जाता है तब चाहे दीर्घकाल में ही क्यों न हो-कभी न कभी इस कर्मभूमि में फिर लौट कर आना ही पड़ता है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि कर्म के पंजे से बिल्कुल छूटकर अमृतत्व में मिल जाने का और जन्म-मरण की झंझट को सदा के लिए दूर कर देने का यह सच्चा मार्ग नहीं है। इस झंझट को सदा के लिए दूर करने का अर्थात् मोक्ष प्राप्ति का अध्यात्म शास्त्र के कथनानुसार "ज्ञान" ही एक सच्चा मार्ग है । "ज्ञान" शब्द का अर्थ व्यवहार ज्ञान या नाम रूपात्मक सृष्टि-शास्त्र का ज्ञान नहीं है, किन्तु यहाँ उसका अर्थ ब्रह्मात्मैक्य ज्ञान है । इसी को "विद्या" भी कहते हैं । "कर्मणा बध्यते जन्तुः विद्यया तु प्रमुचयते"-कर्म से ही प्राणी बांधा जाता है, और विद्या से उसका छुटकारा होता है-यह जो वचन दिया गया है, उसमें "विद्या" का अर्थ "ज्ञान" ही विवक्षित है। गीता में भगवान ने अर्जुन से कहा है कि-'ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरूतेअर्जुन।' अर्थात् ज्ञान रूप अग्नि से सब कर्म भस्म हो जाते हैं [गीता ४,३७] । और 'महाभारत' में भी कहा गया है कि
बीजान्यग्न्युपदग्धानि न रोहन्ति यथा पुनः
ज्ञानदग्धैस्तथा क्लेशै त्मा सम्यद्यते पुनः ।। १-महाभारत, वनपर्व २५६-६०, गीता ८.२५, ६.२० २-महाभारत, वनपर्व १८६-१०६-७ ।
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