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________________ २५६ ] [ कर्म सिद्धान्त चंचलता आदि कहते हैं जो किसी को भी अभीष्ट नहीं है। प्राकृतिक नियमानुसार भुक्त-अभूक्त के प्रभाव की प्रतीति यद्यपि मानव के विकास में हेतु है, परन्तु उसके वास्तविक रहस्य को न जानने के कारण हम अपने आप होने वाले चिन्तन को किसी अन्य चिन्तन के द्वारा मिटाने का प्रयास करते हैं और यह भूल जाते हैं कि किये हुए का तथा करने की रुचि का परिणाम ही तो व्यर्थ चिन्तन है। जिस कारण से व्यर्थ चिन्तन उत्पन्न हुआ है, उसका नाश न करना और उसी के द्वारा व्यर्थ चिन्तन मिटाने का प्रयास करना व्यर्थ चिन्तन को ही पोषित करना है। व्यर्थ चिन्तन की उत्पत्ति मानव को यह बोध कराती है कि भूतकाल में क्या कर चुके हो और भविष्य में क्या करना चाहते हो। जो कर चूके हो उसका परिणाम क्या है ? जो करना चाहते हो उसका परिणाम क्या होगा, इस पर विचार करने का सुअवसर व्यर्थ चिन्तन के होने से ही मिलता है । व्यर्थ चिन्तन का सदुपयोग न करना और उसको बलपूर्वक किसी क्रिया-विशेष से मिटाने का प्रयास करना अपने ही द्वारा अपना विनाश करना है। ज्यों-ज्यों ब्यर्थ चिन्तन मिटाने के लिये किसी क्रिया विशेष को अपनाते हैं, त्यों-त्यों व्यर्थ चिन्तन सबल तथा स्थायी होता जाता है । किये हुए के परिणाम को किसी कर्म के द्वारा मिटाने का प्रयास सर्वथा व्यर्थ ही सिद्ध होता है अर्थात् व्यर्थ चिन्तन नाश नहीं होता। व्यर्थ-चिन्तन का अन्त करने के लिये क्रिया-जनित सुख लोलुपता का सर्वांश में त्याग करना अनिवार्य है। वह तभी सम्भव होगा जब मूक-सत्संग के द्वारा शान्ति की अभिव्यक्ति, विचार का उदय एवं अखण्ड स्मृति जागृत हो जाय । शान्ति में योग, विचार में बोध एवं अखण्ड स्मृति में अगाध रस निहित है । क्रिया-जनित सुख-लोलुपता की दासता का नाश रस की अभिव्यक्ति होने पर ही होता है । सुख-लोलुपता मानव को सदैव पराधीनता, जड़ता एवं अभाव में ही आबद्ध करती है । किन्तु रस की अभिव्यक्ति में पराधीनता, जड़ता, अभाव आदि की गन्ध भी नहीं है। इतना ही नहीं, पराधीनता से ही क्रिया-जनित सुख उत्पन्न होता है । जब मानव को पराधीनता असह्य हो जाती है तब वह बड़ी ही सुगमता एवं स्वाधीनतापूर्वक सत्संग करने में तत्पर होता है । यह कैसा आश्चर्य है ? जिसकी उपलब्धि स्वाधीनतापूर्वक होती है उससे विमुख होना और जिसमें पराधीनता के अतिरिक्त और कुछ नहीं है, उसके लिये प्रयास करना, क्या अपने ही द्वारा अपने विनाश का आह्वान नहीं है ? सत्संग की भूख जागृत होते ही सत्संग अत्यन्त सुलभ हो जाता है । उससे निराश होना भूल है । जो मौजूद है उसका संग न करना और जो नहीं है उसके पीछे दौड़ने का प्रयास करना क्या प्राप्त सामर्थ्य का दुर्व्यय नहीं है ? अर्थात् अवश्य है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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