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कर्मवाद : एक विश्लेषणात्मक अध्ययन ]
[ २१ ब्राह्मणकाल में अनेक देवों के स्थान पर एक प्रजापति देव की प्रतिष्ठा हुई, उन्होंने भी कर्म के साथ प्रजापति का समन्वय कर कहा-प्राणो अपने कर्म के अनुसार फल अवश्य प्राप्त करता है परन्तु फल प्राप्ति अपने आप न होकर प्रजापति के द्वारा होती है। प्रजापति (ईश्वर) जीवों को अपने अपने कर्म के अनुसार फल प्रदान करता है। वह न्यायाधीश की तरह है। इस विचारधारा का दार्शनिक रूप न्याय, वैशेषिक, सेश्वरसांख्य और वेदान्त दर्शन में हुआ है।
यज्ञ आदि अनुष्ठानों को वैदिक परम्परा में कर्म कहा गया है, वे अस्थायी हैं, उसी समय समाप्त हो जाते हैं, अतः वे किस प्रकार फल प्रदान कर सकते हैं ? इसलिए फल प्रदान करने वाले एक अदृष्ट पदार्थ की कल्पना की, उसे मीमांसा दर्शन ने "अपूर्व" कहा । वैशेषिक दर्शन में "अदृष्ट" एक गुण माना गया है, जिसके धर्म-अधर्म रूप ये दो भेद हैं । न्यायदर्शन में धर्म और अधर्म को संस्कार कहा है । अच्छे बुरे कर्मों का आत्मा पर संस्कार पड़ता है, वह अदृष्ट है। अदृष्ट आत्मा का गुण है । जब तक उसका फल नहीं मिल जाता तब तक वह आत्मा के साथ रहता है। उसका फल ईश्वर के माध्यम से मिलता है । चकि यदि ईश्वर कर्मफल की व्यवस्था न करे तो कर्म निष्फल हो जाएँ । सांख्य कर्म को प्रकृति का विकार कहता है । श्रेष्ठ और कनिष्ठ प्रवृत्तियों का प्रकृति पर संस्कार पड़ता है । उस प्रकृतिगत संस्कार से ही कर्मों के फल प्राप्त होते हैं । इस प्रकार वैदिक परम्परा में कर्मवाद का विकास हुआ है ।
बौद्धदर्शन में कर्म:
___ बौद्ध और जैन ये दोनों कर्म-प्रधान श्रमण-संस्कृति की धाराएँ हैं। बौद्ध परम्परा ने भी कर्म की अदृष्ट शक्ति पर चिन्तन किया है। उसका अभिमत है कि जीवों में जो विचित्रता दृष्टिगोचर होती है वह कर्मकृत है। लोभ (राग), द्वेष और मोह से कर्म की उत्पत्ति होती है। रागद्वेष और मोहयुक्त होकर प्राणी, मन, वचन और काय की प्रवृत्तियाँ करता है और राग-द्वेष और मोह को उत्पन्न करता है । इस तरह संसार-चक्र निरन्तर चलता रहता है । जिस चक्र का न आदि है न अन्त है, किन्तु वह अनादि है ।
एक बार राजा मिलिन्द ने आचार्य नागसेन से जिज्ञासा प्रस्तुत की कि जीव द्वारा किये गये कर्मों की स्थिति कहाँ है ? समाधान करते हुए आचार्य ने कहा-यह दिखलाया नहीं जा सकता कि कर्म कहाँ रहते हैं।
'विसुद्दिमग्ग' में कर्म को अरूपी कहा है । अभिधम्म कोष में उसे अविज्ञप्ति का रूप कहा है। यह रूप सप्रतिघ न होकर अप्रतिघ है । सौत्रांतिक मत की दृष्टि से कर्म का समावेश अरूप में हैं, वे अविज्ञप्ति को नहीं मानते। बौद्धों ने कर्म को सूक्ष्म माना है। मन, वचन और काय की जो प्रवृत्ति है वह कर्म
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