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कर्तव्य-कर्म
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0 स्वामी शरणानन्द
प्रत्येक कर्त्तव्य-कर्म का सम्बन्ध वर्तमान से है । अतः भविष्य में जो कुछ करना है, उसका चिन्तन तभी तक होता है, जब तक मानव कर्तव्यनिष्ठ नहीं होता और विश्राम में जीवन है-इसमें आस्था नहीं होती। चिन्तन से उसकी प्राप्ति नहीं होती जो कर्म सापेक्ष है । अर्थात् उत्पन्न हुई वस्तुओं की प्राप्ति कर्म सापेक्ष है, चिन्तन-साध्य नहों। इस दृष्टि से वस्तु, व्यक्ति, अवस्था, परिस्थिति आदि का चिन्तन व्यर्थ चिन्तन ही है। अब यदि कोई यह कहे कि आत्मा, परमात्मा का तो चिन्तन करना होगा। अनात्या का आश्रय लिये बिना क्या कोई भी मानव किसी प्रकार का चिन्तन कर सकता है ? कदापि नहीं । अनात्मा से असंग होने पर आत्म साक्षात्कार तथा आत्मरति होती है, चिन्तन से नहीं । असंगता अनुभव सिद्ध है, चिन्तन साध्य नहीं । अतः आत्म-चिन्तन अनात्मा का तादात्म्य ही है और कुछ नहीं। परमात्मा से देश-काल की दूरी नहीं है । जो सभी का है, सदैव है, सर्वत्र है और सर्व है, उसकी आत्मीयता ही उससे अभिन्न कर सकती है, कारण कि आत्मीयता अगाध-प्रियता की जननी है। प्रियतादूरी, भेद-भिन्नता को रहने नहीं देती, अर्थात् मानव को योग, बोध, प्रेम से अभिन्न करती है।
आत्मीयता आस्था, श्रद्धा, विश्वास से ही साध्य है, किसी अन्य प्रकार से नहीं । आस्था, श्रद्धा, विश्वास की पुनरावृत्ति नहीं करनी पड़ती, अपितु अपने ही द्वारा स्वीकृत होती है । इन्द्रिय तथा बुद्धि दृष्टि से जिसकी प्रतीति होती है, उससे असंग होना और सुने हुए आत्मा व परमात्मा में अविचल आस्था, श्रद्धा, विश्वास करना सत्संग है, अभ्यास नहीं। अभ्यास के लिये किसी 'पर' की अपेक्षा होती है और सत्संग अपने ही द्वारा साध्य है । इस दृष्टि से सत्संग स्वधर्म. तथा प्रत्येक अभ्यास शरीर धर्म ही है । स्वधर्म अपने लिये तथा शरीर धर्म पर के लिये उपयोगी है । योग, बोध तथा प्रेम की अभिव्यक्ति स्वधर्म अर्थात् सत्संग से ही साध्य है । प्रत्येक कर्त्तव्य-कर्म के आदि और अन्त में सत्संग का शुभावसर है । सत्संग के बिना कर्त्तव्य की, निज स्वरूप की एवं प्रभु की विस्मृति नाश नहीं होती । कर्त्तव्य की विस्मृति में ही अकर्त्तव्य की उत्पत्ति और निज स्वरूप की विस्मृति में ही देहाभिमान की उत्पत्ति होती है, जो विनाश का मूल है। स्मृति
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