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कर्मक्षय और प्रवृत्ति ]
[ २५१ को एक सा अन्न देते हैं। चारों बाह्य कर्म करते हैं और चारों को सामान स्थूल तृप्ति होती है। परन्तु सम्भव है कि 'क' लोभ से देता हो, 'ख' तिरस्कार से देता हो, 'ग' पुण्येच्छा से देता हो और 'घ' आत्मभाव से स्वभावतः देता हो । उसी तरह 'प' दुःख मानकर लेता हो, 'फ' मेहरबानी मानकर लेता हो, 'ब' उपकारक भावना से लेता हो, 'भ' मित्र भाव से लेता हो। अन्नव्यय और क्षुधातृप्ति रूपी बाह्य फल सबका समान होने पर भी इन भेदों के कारण कर्म के बन्धन और क्षय की दृष्टि से बहुत फर्क पड़ जाता है। उसी तरह क, ख, ग, घ, से प, फ, ब, भ अन्न मांगें और चारों व्यक्ति उन्हें भोजन नहीं करावें, तो इसमें कर्म से समान परावृत्ति है और चारों की स्थूल भूख पर इसका समान परिणाम होता है। फिर भी भोजन न करावें या जल न पाने के पीछे रही बुद्धि, भावना, नीति, संवेदना इत्यादि भेद से इस कर्म-परावृत्ति से कर्म के बंधन और क्षय एक से नहीं होते।
__तो यहाँ प्रवृत्ति और निवृत्ति के साथ पुनरावृत्ति और वृत्ति शब्द भी याद रखने जैसे हैं। परावृत्ति का अर्थ निवृत्ति नहीं है। परन्तु बहुत से लोग परावृत्ति को ही निवृत्ति मान बैठते हैं और वृत्ति अथवा वर्तन का अर्थ प्रवृत्ति नहीं है । परन्तु बहुत से लोग वृत्ति को ही प्रवृत्ति समझते हैं। वृत्ति का अर्थ है केवल बरतना। प्रवृत्ति का अर्थ है विशेष प्रकार के आध्यात्मिक भावों से बरतना। परावृत्ति का अर्थ है वर्तन का अभाव, निवृत्ति का अर्थ है वृत्ति तथा परावृत्ति सम्बन्धी प्रवृत्ति से भिन्न प्रकार की एक विशिष्ट आध्यात्मिक संवेदना।
अब कर्म-बन्धन और कर्मक्षय के विषय में बहुतों का ऐसा खयाल मालूम होता है, मानो कर्म नाम की हर एक के पास एक तरह की पूजी है। पाँच हजार रुपये ट्रंक में रखे हुए हों और उनमें किसी तरह की वृद्धि न हो परन्तु उनका खर्च होता रहे, तो दो-चार वर्ष में या पच्चीस वर्ष में तो वे सब अवश्य खर्च हो जायेंगे । परन्तु यदि मनुष्य उन्हें किसी कारोबार में लगाता है तो उनमें कमोवेशी होगी और सम्भव है कि पांच हजार के लाख भी हो जायें या लाख न होकर उल्टा कर्ज हो जाय । यह घाटा भी चिंता और दुःख उत्पन्न करता है। सामान्य रूप से मनुष्य ऐसी चिता और दुःख की सम्भावना से घबराते नहीं और लाख होने की सम्भावना से अप्रसन्न नहीं होते। वे न तो रुपयों का क्षय करना चाहते हैं और न रुपयों के बन्धन में पड़ने से दुःखी होते हैं। निवृत्तिमार्गी साधु भी मंदिरों में और पुस्तकालयों में बढ़ने वाले परिग्रह से चिंतातुर नहीं होते। परन्तु कर्म नाम की पूजी की हमने कुछ ऐसो कल्पना की है मानो वह एक बड़ी गठरी है और उसको खोलकर, जैसे बने वैसे उसे खत्म कर डालने में ही मनुष्य का श्रेय है, कर्म का व्यापार करके उससे लाभ उठाने में नहीं।
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