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________________ कर्म-परिणाम की परम्परा ] [ २४६ है कि हमारे कर्मों का फल खुद हमीं को भोगना पड़ता है या नहीं ? कई लोगों का यह खयाल भी होने लगा है कि पुनर्जन्म, कर्मवाद वगैरह तमाम मान्यतायें गलत हैं, इसका बहुजन-समाज पर जल्दी ही बुरा असर होना संभव है। ऐसे समय ईश्वर, भक्ति, पूनर्जन्म, मोक्ष प्रादि पर से लोगों की श्रद्धा मिटे, इसके पहले ही विचारवान और जन हित-चिन्तक व्यक्तियों को चाहिये कि वे समाज के सामने सही विचार रखकर उनमें नीति और सदाचार की भावनाएँ जाग्रत करें और उन्हें दृढ़ करें, अन्यथा पूर्व श्रद्धा से छूटे हुए लोगों के नास्तिकता में फंस जाने और स्वेच्छाचारी होने का बड़ा भय है । इस अवस्था में यदि कुछ लोग यह महसूस करें कि ऐसा होने के बजाय धर्म की गलत और भ्रामक मान्यतायें होना भी अच्छा है तो आश्चर्य नहीं । हमारे कर्म का फल खुद हमें तो भोगना ही पड़ता है, साथ ही साथ दूसरों को भी भोगना पड़ता है । इस नियम पर अब हमें विश्वास रखना चाहिये । मानव-जगत् का न्याय सामूहिक पद्धति पर चलता है । इसलिये हमारे कर्मों का • फल हमें न मिलकर समह को भी मिलेगा। अपने कर्मों का फल हमें इस जन्म में या दूसरे जन्म में भोगना पड़ता है, इस मान्यता में अपनेपन की कल्पना इस जन्म और दूसरे जन्म के अपने तक ही अर्थात् अपने जीव तक ही सीमित रहती है । इसमें संकुचितता और अवलोकन शक्ति की अपूर्णता मालूम होती है। इसलिये यह संकुचित कल्पना छोड़कर हमें अपनेपन की विशाल कल्पना धारण करनी चाहिये । हमारा प्रात्मभाव जैसे-जैसे व्यापक होता जायेगा, वैसे-वैसे यह न्याय हमें उचित दिखाई देने लगेगा । मानव-जीवन, मानव-सम्बन्ध, मानवसंकल्प और विश्व के व्यक्त-अव्यक्त व्यापार सबकी दृष्टि से यह मान्यता और यह न्याय अधिक उदात्त, सत्य और श्रद्धेय है । इस न्याय निष्ठा से रहेंगे, तो हममें आपसी प्रेम, विश्वास और एकता बढ़ेगी, समभाव पैदा होगा और कुल मिलाकर हम सब मानवता की दिशा में प्रगति करेंगे। इसके लिये हमें अपने कर्मों और संकल्पों का विचार करके उनमें रहने वाली अशुद्धता दूर करनी चाहिये, हमें शुभ कर्म करने चाहिये और शुभ संकल्प धारण करने चाहिये। सबकी शुद्धि और उन्नति के लिये हमें सत्कर्मरत और सद्गुणी बनना चाहिये। प्रेमी और कल्याण इच्छूक माता-पिता अपनी सन्तान पर अच्छे संस्कार डालने और उसकी उन्नति के लिये खुद संयमी, सद्गुणी और सदाचारी रहते हैं । इसी प्रकार सारी मानव-जाति पर हमारा प्रेम हो, सबके प्रति हमारे मन में सहानुभूति हो, तो समस्त मानव-जाति के लिये धर्म मार्ग से कष्ट सहन करने में हमें धन्यता का अनुभव होगा। केवल अपने विषय की संकुचित भावना से कष्ट सहन करने के बजाय मानवता और एकता की विशाल भावना से कष्ट सहन करने में जीवन की सच्ची सार्थकता है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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