________________
वैयक्तिक एवं सामूहिक कर्म ]
[ २४१ हर एक सम्प्रदाय में सर्व भूतहित पर भार दिया गया है । परन्तु व्यवहार में मानव समाज के हित का भी शायद ही पूरी तरह से अमल देखने में आता है। इसलिए प्रश्न यह है कि पहले मुख्य लक्ष्य किस दिशा में और किस ध्येय की तरफ़ दिया जाय ? स्पष्ट है कि पहले मानवता के विकास की ओर लक्ष्य दिया जाय और उसके मुताबिक जीवन बिताया जाय । मानवता के विकास का अर्थ है-आज तक उसने जो-जो सद्गुण जितनी मात्रा में साधे हैं, उनकी पूर्ण रूप से रक्षा करना और उनकी मदद से उन्हीं सद्गुणों में ज्यादा शुद्धि करके नवीन सद्गुणों का विकास करना जिससे मानव-मानव के बीच द्वन्द्व और शत्रुता के तामस बल प्रकट न होने पावें। इस तरह जितनी मात्रा में मानवविकास का ध्येय सिद्ध होता जायेगा उतनी मात्रा में समाज-जीवन सुसंवादी
और सुरीला बनता जावेगा । उनका प्रांसगिक फल सर्वभूतहित में ही आने वाला है । इसलिये हर एक साधक के प्रयत्न की मुख्य दिशा तो मानवता के सद्गुणों के विकास की ही रहनी चाहिये । यह सिद्धान्त भी सामूहिक जीवन की दृष्टि से कर्म फल का नियम लागू करने के विचार में से ही फलित होता है।
ऊपर की विचार सरणी गृहस्थाश्रम को केन्द्र में रखकर ही सामुदायिक जीवन के साथ वैयक्तिक जीवन का सुमेल साधने की बात कहती है । यह ऐसी सूचना है जिसका अमल करने से ग्रहस्थाश्रम में ही बाकी के सब आश्रमों के सद्गुण साधने का मौका मिल सकता है। क्योंकि उसमें गृहस्थाश्रम का आदर्श इस तरह बदल जाता है कि वह केवल भोग का धाम न रहकर भोग और योग के सुमेल का धाम बन जाता है इसलिये गृहस्थाश्रम से अलग अन्य आश्रमों का विचार करने की गुंजाइश ही नहीं रहती। गृहस्थाश्रम ही चारों आश्रमों के समग्र जीवन का प्रतीक बन जाता है और वही नैसर्गिक भी है।
000
रे जीवा साहस आदरो, मत थाओ तुम दीन । सुख-दुःख आपद-संपदा, पूरब कर्म अधीन ।। कर्म हीण को ना मिले, भली वस्तु का योग । जब दाखें पकने लगीं, काग कंठ भयो रोग ।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org