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अाधुनिक हिन्दी महाकाव्यों में कर्म एवं पुनर्जन्म की अवधारणा ]
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शक्ति प्रकट होती है । यथा-ज्ञानावरण के हटने से अनन्त ज्ञान शक्ति प्रकट होती है । इस परिप्रेक्ष्य में कहा जा सकता है कि प्रत्येक क्रिया का कोई-न-कोई फल अवश्य होता है । यदि किसी प्राणी को वर्तमान जीवन में किसी क्रिया का फल प्राप्त नहीं होता तो भविष्यकालीन जीवन अनिवार्य है। कर्म का कर्ता एवं भोक्ता निरन्तर अपने पूर्व कर्मों का भोग तथा नवीन कर्मों का बन्ध करता रहता है । कर्मों की इस परम्परा को वह सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान तथा सम्यक चारित्र के द्वारा तोड़ भी सकता है । जन्मजात व्यक्ति भेद, सुख-दुःख तथा असमानता सब कर्मजन्य है । कर्म बन्ध का कारण प्राणी की रागद्वेष जन्य प्रवृत्ति है । अतः कर्मबन्ध एवं कर्मयोग का अधिष्ठाता प्राणी स्वयं है। नवीन कर्मों के उपार्जन का निरोध तथा पूर्वोपार्जित कर्मों का क्षय करके कर्मबन्ध से मुक्त हुआ जा सकता है।
कर्म प्रवाह रूप से अनादि है। जब से जीव है तब से कर्म हैं। दोनों अनादि हैं । परिपाक-काल के बाद वे जीव से अलग हो जाते हैं। आत्म-संयम से नये कर्म चिपकने बन्द हो जाते हैं। पिछले चिपके हुए कर्म तपस्या के द्वारा धीरे-धीरे निर्जीण हो जाते हैं। नये कर्मों का बन्ध नहीं होता, पुराने कर्म टूट जाते हैं । तब यह अनादि प्रवाह रुक जाता है-आत्मा मुक्त हो जाती है। जब तक आत्मा कर्म-मुक्त नहीं होती है तब तक उसकी जन्म-मरण की परम्परा नहीं रुकती।
जैन दर्शन की इन मान्यताओं के परिप्रेक्ष्य में यदि हम आधुनिक हिन्दी महाकाव्यों पर दृष्टि निक्षेप करें तो हम पाते हैं कि इस कर्मवाद एवं पुनर्जन्म के सिद्धान्त से, जो भारतीय संस्कृति का एक अंग है, महाकाव्यकार भी अछूते नहीं रहे । यही कारण है कि इस सिद्धान्त का निरूपण अनेक महाकाव्यों में स्थान-स्थान पर हुआ । उदाहरण के लिए मैथिली शरण गुप्त 'जय भारत' में कहते हैं"कर्मों के अनुसार जीव जग में फल पाता।"
(पृ० २६४) ताराचन्द हारीत अपने महाकाव्य 'दमयन्ती' में उक्त स्वर को ही भास्वरता प्रदान करते हुए कहते हैं"निज कर्मों के अनुसार जीव फल पाता।".
(पृ० २५६) जीव जो भी शुभाशुभ कर्म करता है उसके फल को भोगना आवश्यक है। 'परम ज्योति महावीर' महाकाव्य में कर्मवाद के इसी तथ्य को निरूपित करता हुआ कवि कहता है
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