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________________ २२० ] [ कर्म सिद्धान्त उठाना) को प्रकृति की प्रक्रियाओं (जैसे कि बूदों का वाष्पीकृत होना) से विभेदित करती है। क्योंकि उनमें कर्ता के बारे में बताना आवश्यक नहीं है और न वहाँ उत्तरदायित्व की बात उठती है। क्रियाएँ बनाम भावावेश (Passions) : क्रिया वह है जिसे कोई कर्त्ता करता है। इस कथन में यह भाव है कि हम क्रिया को उसके कर्त्तापन (agency) के एक उदाहरण के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं । क्रिया इसी कारण कुछ घटित होने (happens to) से भिन्न है । उदाहरण के रूप में उसका नीचे बैठना (क्योंकि वह कमजोरी का अनुभव करता है) से उसके गिर पड़ने से (क्योंकि उसका पैर केले के छिलके पर पड़ गया था) भिन्न है। कुछ अन्य बातें ऐसी हैं जिन्हें कर्ता करता है लेकिन वे क्रियाओं की कोटि में नहीं आतीं। इस बात को समझने के लिए निम्न विभेदीकरणों पर विचार कीजिए :क्रियाएँ बनाम मात्र व्यवहार (mere-behaviour) : ___ व्यक्ति ऐसे बहत से व्यवहार करता है जिनके कर्ता के बारे में विचार नहीं किया जाता। इस प्रकार के करने (doings) को क्रिया की कोटि में नहीं रखा जाता। क्रिया किसी के साथ घटित होती है (happens to some one) अथवा कुछ करना पड़ता है (just happens to do) से विपरीत-व्यवहार की एक प्रकरण (item) है जिसके होने पर (व्यक्ति) नियंत्रण कर सकता है। क्रियाएं बनाम पर्यवसान (terminations) : कर्ता क्रियाएँ (activity verbs : listening for, looking at, searching for) तथा उपलब्धि क्रियाएँ (achievement verbs : hearing. seeing, finding) में भेद है। प्रथम प्रकार की कोटि, क्रियाओं का प्रतिनिधित्व करती है लेकिन द्वितीय कोटि (जो केवल क्रिया का परिणाम है) नहीं करती। उदाहरण के रूप में वैवाहिक संस्कारों में भाग लेना क्रिया है लेकिन गृहस्थाश्रम में प्रवेश करना क्रिया नहीं (संस्कारों को करने का परिणाम है।) संयम रखना (refraining) बनाम क्रिया न करना (non-action) : निर्व्यापारत्व या प्रक्रियता (inaction) के दो महत्त्वपूर्ण पर्याय हैं। प्रथम है संयम रखना। किसी महत्त्वपूर्ण व्यक्ति से वार्तालाप करते समय मच्छर के काटने से उत्पन्न पोड़ा वाले अंग को न सहलाना संयम रखने का उदाहरण है। दूसरे प्रकार का निर्व्यापारत्व क्रिया न करने (non-action) की कोटि में आता है। उदाहरण के रूप में जब मैं कुर्सी पर बैठकर पढ़ रहा होता हूँ तो मैं बहुत-सी बातें जैसे कि लेख लिखना, मित्र से गप लगाना, आदि नहीं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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