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________________ [ कर्म-सिद्धान्त रस्से से रस्से के साथ लगी है और गाय बंधी हुई है । प्रात्मा और कर्म के साथ भी यही बात है । कर्म की गाँठ कर्म के साथ लगी है, आत्मा के साथ नहीं, किन्तु आत्मा बन्धन से फंस गयी है । प्रात्मा अरूपी और कर्म रूपी है, अरूपी रूपी के साथ कभी सम्बन्ध नहीं करता। विचित्रता यही है कि कर्म के साथ कर्म के बन्धन से आत्मा बन्ध रही है। जैसे गाँठ खुल जाने से गाय मुक्त हो जाती है उसी प्रकार कर्म की गाँठ खुल जाने पर आत्मा भी स्वतंत्र और कर्म-बन्धन से मुक्त हो जाती है। मानव के पास बुद्धि रूप ज्ञान और आचरण रूप क्रिया का ऐसा अनुभव रूप बल, शक्ति है कि वह कठिन, गुरुतर, दुष्कर और दुर्भद्य को भी आसान कर सकता है । जीव अपने प्रयत्न विशेष से, पुरुषार्थ से कर्म को पृथक् कर सकता है, यथा "मलं स्वर्णगतं वह्नि, हंसः क्षीर गतं जलम् । यथा पृथक्करोत्येव, जन्तोः कर्म मलं तपः ।।" अर्थात्- जैसे स्वर्ण में रहा हुआ मल अग्नि के ताप से, दूध और पानी हंस की चोंच से पृथक्त्व को प्राप्त होता है, उसी प्रकार कर्ममल तप से नष्ट हो जाता है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप द्वारा यह जीव कर्म का पृथक्-करण कर सकता है। हमारा जीवन विघ्न, बाधा और विपत्तियों से भरा पड़ा है । इनके कारण हमारी बुद्धि अस्थिर हो जाती है । एक ओर बाहरी परिस्थिति प्रतिकूल होती है तो दूसरी ओर घबराहट, चिन्ता और पाप के प्रकटीकरण से अंतरंग स्थिति को हम स्वयं अपने हाथों से बिगाड़ लेते हैं। ऐसी अवस्था में-"विपत्तिकाले विपरीत बुद्धिः" होने पर भूल पर भूल होना स्वाभाविक है। अंततोगत्वा हम आरम्भ किये कार्य को निराश हो छोड़ देते हैं। ऐसे समय में कर्म सिद्धान्त शिक्षक का कार्य करता है, पुरुषार्थ का पाठ पढ़ाता है। वह आत्मा को धीरज . बंधाता है । दुःख में घबराहट और सुख में संयत कर, उच्छृखल व उद्दण्ड होने से बचाता है। इस तरह जैन दर्शन में प्रतिपादित कर्म सिद्धान्त पुरुषार्थ पर अवलंबित है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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