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________________ मीमांसा-दर्शन में कर्म का स्वरूप ] [ २०१ कर्म का प्रत्यक्ष होता है क्योंकि यह वस्तु में ही होती है इसी से वह स्थान के किसी एक बिन्दु से जुड़ती है और अन्य से विलग होती है। कुमारिल कर्ता को ही कर्म का कारण मानता है जबकि प्रभाकर का यह मत है कि कर्मों को किसी विशिष्टकर्ता, उसकी इच्छाओं और प्रेरणाओं से स्वतंत्र करके विश्लेषित किया जा सकता है। प्रभाकर कर्म के विश्लेषण में निम्न पदों की चर्चा करते हैं—(१) कार्यता ज्ञान, (२) चिकीर्षा, (३) कृति, (५) चेष्टा और (६) बाह्य व्यवहार । दूसरे शब्दों में यह कह सकते हैं कि कुमारिल कर्म की मनोवैज्ञानिक व्याख्या प्रस्तुत करते हैं जबकि प्रभाकर कर्म की व्याख्या में हेतु उपागम की सहायता लेते हैं।' दोहे सुख-दुःख आते ही रहें, ज्यों भाटा ज्यों ज्वार । मन विचलित होवे नहीं, देख चढ़ाव-उतार ।। कपट रहे ना कुटिलता, रहे न मिथ्याचार । शुद्ध धर्म ऐसा जगे, होय स्वच्छ व्यवहार ॥ सहज सरल मृदु नीर-सा, मन निर्मल हो जाय ।. त्यागे कुलिश, कठोरता, गांठ न बंधने पाय ।। जो ना देखे स्वयं को, वही बांधता बन्ध । जिसने देखा स्वयं को, काट लिए दुःख द्वन्द्व । राग द्वेष की, मोह की, जब तक मन में खान । तब तक सुख का, शान्ति का, जरा न नाम निशान ।। भोक्ता बनकर भोगते, बंधन बंधते जायं । द्रष्टा बनकर देखते, बंधन खुलते जायं ।। पाप होय झट रोक ले, करे न बारम्बार । धर्मवान जाग्रत रहे, अपनी भूल सुधार । -सत्यनारायण गोयनका १. विस्तृत विवेचना के लिये मेरे निम्न लेख द्रष्टव्य हैं 8. Kumarila & Prabhakara's understanding of actions. Indian ___ Philosophical Quarterly, Vol. XI, No. 1, January, 1984. २. मीमांसा का अर्थवाद और कुछ दार्शनिक समस्याएँ : परामर्श, खण्ड ५, अंक ३, १९८४, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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