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________________ १८८ ] [ कर्म सिद्धान्त होने पर भय या स्वार्थ वश कर्तव्य कर्म से मुंह मोड़ना, विहित कर्मों का त्याग कर देना आदि में भी कर्म नहीं होते, परन्तु इस अकर्म दशा में भी भय या राग भाव अकर्म को भी कर्म बना देता है। जबकि अनासक्त वृत्ति और कर्तव्य की दृष्टि से जो कर्म किया जाता है । वह राग-द्वेष के अभाव के कारण अकर्म बन जाता है । उपयुंक्त विवेचना से स्पष्ट है कि कर्म और अकर्म का निर्णय केवल शारीरिक क्रियाशीलता या निष्क्रियता से नहीं होता । कर्ता के भावों के अनुसार ही कर्मों का स्वरूप बनता है। इस रहस्य को सम्यक् रूपेण जानने वाला ही गीताकार की दृष्टि में मनुष्यों में बुद्धिमान योगी है। सभी विवेच्य प्राचार दर्शनों में कर्म-अकर्म विचार में वासना, इच्छा या कर्तृत्व भाव ही प्रमुख तत्त्व माना गया है । यदि कर्म के सम्पादन में वासना, इच्छा या कर्तृत्व बुद्धि का भाव नहीं है तो वह कर्म बन्धक कारक नहीं होता है। दूसरे शब्दों में बन्धन की दृष्टि से वह कर्म-अकर्म बन जाता है, वह क्रिया अक्रिया हो जाती है। वस्तुतः कर्म-अकर्म विचार में क्रिया प्रमुख तत्त्व नहीं होती है, प्रमुख तत्त्व है, कर्ता का चेतन पक्ष । यदि चेतना जाग्रत है, अप्रमत्त है, विशुद्ध है, वासना शून्य है, यथार्थ दृष्टि सम्पन्न है तो फिर क्रिया का बाह्य स्वरूप अधिक मूल्य नहीं रख सकता। पूज्यपाद कहते हैं "जो आत्म तत्त्व में स्थिर है वह बोलते हुए भी नहीं बोलता है, चलते हुए भी नहीं चलता है, देखते हुए भी नहीं देखता है ।" आचार्य अमृतचन्द्र सूरी का कथन है रागादि (भावों) से मुक्त युक्त आचरण करते हुए यदि हिंसा (प्राणघात) हो जावे तो वह हिंसा नहीं है। अर्थात् हिंसा और अहिंसा, पाप और पुण्य बाह्य परिणामों पर निर्भर नहीं होते हैं वरन् उसमें कर्ता की चित्तवृत्ति ही प्रमुख है। उत्तराध्ययन सूत्र में भी स्पष्ट रूप से कहा गया है-भावों से विरक्त जीव शोक रहित हो जाता है, वह कमल पत्र की तरह संसार में रहते हुए भी लिप्त नहीं होता। गीताकार भी इसी विचार दृष्टि को प्रस्तुत करते हुए कहता है जिसने कर्म फलासक्ति का त्याग कर दिया है, जो वासना शून्य होने के कारण सदैव ही आकांक्षा रहित है और प्रात्म तत्त्व में स्थिर होने के कारण पालम्बन रहित है, वह क्रियाओं को करते हुए भी कुछ नहीं करता है । गीता का अकर्म जैन दर्शन के संवर और निर्जरा से भी तुलनीय है । जिस प्रकार जैन दर्शन में संवर एवं निर्जरा के हेतु किया जाने वाला समस्त क्रिया व्यापार मोक्ष का हेतु होने से अकर्म ही माना गया है। उसी प्रकार गीता में भी फलाकांक्षा से रहित होकर ईश्वरीय आदेश के पालनार्थ जो नियत कर्म किया जाता है वह अकर्म ही माना १ - गीता १८/७। २-गीता ४/१८ । ३-इष्टोपदेश ४१ । ४-पुरुषार्थ० ४५। ५-उत्तरा० ३२/६६। ६-गीता ४/२० । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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